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________________ ४६४ अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वानां यौगपद्येऽप्यात्मज्ञानस्य मोक्षमार्गसाधकतमत्वं जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ।। २३८ ।। यदज्ञानी कर्म क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः । तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ।। २३८ ।। यदज्ञानी कर्म क्रमपरिपाट्या बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पच्यमानमुपात्तरागद्वेषतया सुखदुःखादिविकारभावपरिणतः पुनरारोपितसंतानं भवशतसहस्रकोटिभिः कथंचन निस्तरति, तदेव ज्ञानी स्यात्कारकेतनागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यातिशयप्रसादासादितशुद्धज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणज्ञानित्वसद्भावात्कायवाङ्मनःकर्मोपरमप्रवृत्तत्रिगुप्तत्वात् की प्राप्ति होती है और न संयम के बिना आगमानुसार ज्ञान-श्रद्धान से मुक्ति की प्राप्ति होती है । मुक्ति की प्राप्ति तो मात्र उन्हीं को होती है; जिनके आगम के अनुसार आत्मानुभूतिपूर्वक हुए ज्ञान-श्रद्धान के साथ-साथ शुद्धोपयोगरूप संयम भी हो। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता और परिपूर्णता ही मुक्ति प्राप्ति का एकमात्र उपाय है।।२३७ ।। ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र - इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है' - विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह कहते हैं कि उक्त तीनों के युगपत् होने पर भी मुक्ति का साधकतम कारण तो आत्मज्ञान ही है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है( हरिगीत ) द्योतयति - - प्रवचनसार विज्ञ तीनों गुप्ति से अज्ञ उतने कर्म क्षय करें श्वासोच्छ्वास में । नाशे जनम लाख करोड़ में || २३८ ॥ जितने कर्म अज्ञानी सौ हजार करोड़ भवों में क्षय करता है; उतने कर्म ज्ञानी तीन योग ( मन-वचन-काय ) से गुप्त होने से, त्रिगुप्ति का धारी होने से उच्छ्वास मात्र में क्षय कर देता है । आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं 'अज्ञानी के जितने और जो कर्म क्रमपरिपाटी से और अनेकप्रकार के बालतपादिरूप उद्यम से पकते हुए, उपात्त राग-द्वेष से सुख-दुखादि विकारभावरूप परिणमित होने से आगामी कर्मों को बांधते हुए एक लाख करोड़ भवों में महाकष्ट से कटते हैं; ज्ञानी के उतने और वही कर्म आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयमभाव के युगपत्पने के अतिशय प्रसाद से प्राप्त हुई शुद्धज्ञानमय आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञानीपन से और मन-वचन-कायरूप तीन ..
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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