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________________ ४५४ प्रवचनसार ___ न चैकाग्र्यमन्तरेण श्रामण्यं सिद्ध्येत्, यतोऽनैकाग्र्यस्यानेकमेवेदमिति पश्यतस्तथाप्रत्ययाभिनिविष्टस्यानेकमेवेदमिति जानतस्तथानुभूतिभावितस्यानेकमेवेदमितिप्रत्यर्थविकल्पव्यावृत्तचेतसा संततं प्रवर्तमानस्य तथावृत्तिदुःस्थितस्य चैकात्मप्रतीत्यनुभूतिवृत्तिस्वरूपसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतिप्रवृत्तदृशिज्ञप्तिवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकाग्र्याभावात् शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिरूपं श्रामण्मेव न स्यात् । अत: सर्वथा मोक्षमार्गापरनाम्नः श्रामण्यस्य सिद्धये भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञे प्रकटानेकान्तकेतने शब्दब्रह्माणि निष्णातेन मुमुक्षुणा भवितव्यम् ।।२३२।। और एकाग्रता के बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है, वह पुरुष 'यह अनेक ही है' - ऐसा श्रद्धान करता हुआ इसप्रकार के विश्वास से आग्रही, इसीप्रकार की ज्ञानानन्दानुभूति से भावित और इसीप्रकार के विकल्प से खण्डित चित्त सहित सतत प्रवृत्त होता हुआइसप्रकार के चारित्र से दुःस्थित होता है; इसलिए उसे एक आत्मा की प्रतीति, अनुभूति और प्रवृत्तिरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप से प्रवर्तमान दृशि-ज्ञप्तिवृत्तिरूपएकाग्रता नहीं होने से शुद्धात्मतत्त्व में प्रवृत्तिरूप श्रामण्य ही नहीं होता। अत:मोक्षमार्गरूपश्रामण्य की सिद्धि के लिए मुमुक्षुओंकोभगवान श्रीअरहंत सर्वज्ञकथित अनेकान्तमयीशब्दब्रह्म में निष्णात होना चाहिए।" प्रश्न - गाथा और टीका में अकेले आगम के अभ्यास की ही प्रेरणा दी गई है तो क्या पदार्थों का निश्चय करने के लिए परमागम के अभ्यास की आवश्यकता नहीं है ? उत्तर - अरे भाई ! परमागम भी आगम का ही अंग है; अत: आगम कहने पर उसमें अध्यात्म का प्रतिपादक परमागम भी समाहित हो जाता है। हो सकता है कि आचार्य जयसेन के सामने भी इसप्रकार का प्रश्न उपस्थित हुआ हो; यही कारण है कि यद्यपि वे इस गाथा के भाव को तात्पर्यवृत्ति टीका में अत्यन्त संक्षेप में स्पष्ट करते हैं; तथापि यह स्पष्ट करना नहीं भूलते कि पदार्थों का निश्चय न केवल जीव और कर्मों के भेदों का प्रतिपादन करनेवाले आगम के अभ्यास से ही होता है, अपितु ज्ञानानन्दस्वभावी परमात्मतत्त्व का प्रतिपादन करनेवाले अध्यात्म नामक परमागम से भी होता है; अत: आगम और परमागम - दोनों का अभ्यास करना चाहिए। ___ यद्यपि यह बात सत्य ही है; तथापि यहाँ मुख्यरूप से आगमाभ्यास की ही प्रेरणा दी गई है; क्योंकि आगे चलकर आचार्यदेव स्वयं परमागम के अभ्यास की महिमा स्थापित करते हुए कहेंगे कि आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान निरर्थक है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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