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________________ चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार ४४९ हो गये तो उनका संयम नष्ट हो जायेगा; क्योंकि देवलोक में संयम होता ही नहीं है; अत: यदि संयम की रक्षा करनी है तो ऐसा कठोर आचरण करने का हठ नहीं रखना चाहिए कि जिससे देह ही छूट जाये। ___इसीप्रकार मृदु आचरण के लोभ से यदि एकान्तत: मृदु आचरण ही रखा, तब भी संयम कायम नहीं रह सकेगा। इसलिए समझदारी इसी में है कि अपनी शक्ति अनुसार अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग और उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद मार्ग को अपनाया जाना चाहिए।।२३०|| विगत गाथा में यह कहा गया है कि उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग में मैत्री पूर्वक आचरण होने से मुनिधर्म में सुस्थितपना रहता है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि यदि इनमें परस्पर मैत्रीन रहे, विरोध रहे तो मुनिमार्ग में सुस्थितपना नहीं रहेगा। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है आहारे वा विहारे देशं कालं श्रमं क्षमामुपधिम् । ज्ञात्वा तान् श्रमणो वर्तते यद्यल्पलेपी सः ।।२३१।। अत्र क्षमाग्लानत्वहेतुरुपवास:, बालवृद्धत्वाधिष्ठानं शरीरमुपधिः; ततोबालवृद्धश्रान्तग्लाना एव त्वाकृष्यन्ते । अथ देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहार विहारयोः प्रवर्तमानस्य मृदाचरणप्रवृत्तत्वादल्पोलेपोभवत्येव, तद्वरमुत्सर्गः। देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मृद्वाचरणप्रवृत्तत्वादल्प एव लेपो भवति, तद्वरमपवादः। देशकालज्ञस्यापिबालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वासुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारोमहान् लेपोभवति, तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः। (हरिगीत) श्रमण श्रम क्षमता उपधि लख देश एवं काल को। जानकर वर्तन करे तो अल्पलेपी जानिये ||२३१|| जो श्रमण आहार अथवा विहार में; देश, काल, श्रम, क्षमता और उपधि को जानकर प्रवर्तन करते हैं; वे अल्पलेपी होते हैं। । आचार्य अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "क्षमता और ग्लानता का हेतु उपवास है और बालत्व और वृद्धत्व की अधिष्ठान शरीररूप उपधि है; इसलिए यहाँ टीका में बाल, वृद्ध, श्रान्त और ग्लान ही लिये गये हैं। तात्पर्य यह है कि यद्यपि मूल गाथा में क्षमा और उपधि शब्द हैं; तथापि टीका में उनका आशय लेकर बाल, वृद्ध, श्रान्त और ग्लान शब्दों का ही प्रयोग किया गया है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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