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________________ ४४५ चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार विस्तार से समझाया जा रहा है। गाथाएँ मूलतः इसप्रकार हैं - पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। संतत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ।।३२।। जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि फासदि वा। सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमणेगकोडीणं ।।३३।। (हरिगीत) पकते हुए अर पके कच्चे माँस में उस जाति के। सदा ही उत्पन्न होते हैं निगोदी जीव वस ||३२|| जो पके कच्चे माँस को खावें छुयें वे नारि-नर। जीवजन्तु करोड़ों को मारते हैं निरन्तर||३३|| पके, कच्चे अथवा पकते हुए मांस के टुकड़ों में, उसी जाति के निगोदिया जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिए जो पके हुए या बिना पके हुए मांस के टुकड़ों को खाता है अथवा स्पर्श करता है; वह वस्तुत: अनेक करोड़ों जीवों के समूह का घात करता है। तात्पर्यवृत्ति टीका में भी गाथाओं के भाव को ही दुहरा दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र कृत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक श्रावकाचार में भी इसीप्रकार के दो छन्द प्राप्त होते हैं। लगता तो ऐसा है कि मानो उन्होंने इन्हीं गाथाओं का संस्कृत भाषा में पद्यानुवाद कर दिया है। वे छन्द इसप्रकार हैं - (आर्या छन्द) आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु। सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ।।६७।। आमांवा पक्वांवा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम्। स निहन्ति सतत निचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ।।६८।। कच्ची, पकी तथा पकती हुई मांसपेशियों में उसी जाति के सम्मूर्च्छन जीवों का निरन्तर उत्पादन होता रहता है। जो जीव कच्ची अथवा पकी हुई मांस की पेशी खाता है अथवा छूता है; वह पुरुष निरन्तर इकट्ठे हुए अनेक जाति के जीव समूह के पिंड का घात करता है। प्रश्न - क्या मुनिराजों के आहारसंबंधी चर्चा के संदर्भ में मांस-मधु की बात कुछ अटपटी
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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