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________________ ४३१ चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि ।। (हरिगीत) एक जिनवर लिंग है उत्कृष्ट श्रावक दूसरा | और कोई चौथा है नहीं पर आर्यिका का तीसरा || तात्पर्य यह है कि प्रथम तो नग्न दिगम्बर मुनिराजों का लिंग (वेष) है, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों (क्षुल्लक-ऐलक) का और तीसरा आर्यिका का। जैनदर्शन में ये तीन लिंग (वेष) स्वीकार किये गये हैं। प्रथम वेषवाले पुरुष संत तो पूर्णत: नग्न रहते हैं, दूसरे वेष में उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक तो एक लंगोटी और एक खण्ड वस्त्र रखते हैं तथा ऐलक मात्र लंगोटी ही रखते हैं। तीसरा वेष महिलाओं का है, जो आर्यिकायें कहलाती हैं और मात्र एक सफेद साड़ी पहनती हैं। चूंकि श्वेताम्बर मान्यता में पुरुष साधु भी कपड़े पहनते हैं; अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि महिलाओं के लिए अलग वेष की बात क्यों कही गई ? उक्त शंका का समाधान आगामी गाथाओं में किया गया है; जो मूलत: इसप्रकार हैं - णिच्छयदो इत्थीणं सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा। तम्हा तप्पडिरूवं वियप्पियं लिंगमित्थीणं ।।२१।। पइडीपमादमइया एदासिं वित्ति भासिया पमदा । तम्हा ताओ पमदा पमादबहुला त्ति णिद्दिठा ।।२२।। संति धुवं पमदाणं मोहपदोसा भयं दुगुंछा य । चित्ते चित्ता माया तम्हा तासिं ण णिव्वाणं ।।२३।। ण विणा वट्टदि णारी एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि । ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ।।२४।। चित्तस्सावो तासिं सिथिल्लं अत्तवं च पक्खलणं । विजदि सहसा तासु अ उप्पादो सुहममणुआणं ।।२५।। लिंगम्हि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खपदेसेसु। भणिदो सुहुमुप्पादो तासिं कह संजमो होदि।।२६।। जदि दंसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता। घोरं चरदि व चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा।।२७।।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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