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________________ ४१२ प्रवचनसार रे ज्ञान-दर्शन में सदा प्रतिबद्ध एवं मूलगुण। जो यत्नतः पालन करें बस हैं वही परण श्रमण ||२१४|| सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरञ्जकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदायतनानि तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् । अत आत्मन्येवात्मनो नित्याधिकृत्य वासे वा, गुरुत्वेन गुरूनधिकृत्य वासेवा, गुरुभ्यो विशिष्टेवासेवा, नित्यमेव प्रतिषेधयन् परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनोभूत्वाश्रमणोवर्तताम् ।।२१३।। एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन मार्जितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तत्सद्भावादेव परिपूर्ण श्रामण्यम् । अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धेन मूलगुणप्रयततया चरितव्य, ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमात्रेण वर्तितव्यमिति तात्पर्यम् ।।२१४।। हेश्रमणजनो! अधिवास (आत्मवास अथवागुरुओं के सहवास) में या विवास (गुरुओं के वास से भिन्न वास) में बसते हुए परद्रव्य संबंधी प्रतिबंधों (प्रतिबद्धता) का परिहरण करते हुए सदाश्रामण्य में छेद विहीन होकर विहरो। जो श्रमण ज्ञान में और दर्शनादि में सदा प्रतिबद्ध तथा मूलगुणों में सावधानीपूर्वक वर्तन करता है; वह परिपूर्ण श्रामण्यवान है। उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "सभी प्रकार के चेतन-अचेतन परद्रव्यों के प्रति प्रतिबंध (प्रतिबद्धता) उपयोग का उपरंजक होने से निरुपराग उपयोगरूप श्रामण्य के छेदका आयतन है; क्योंकि उसके अभाव में ही अछिन्न श्रामण्य होता है। इसलिए आत्मा में ही आत्मा कोस्थापित करके उसमें सदाही बसते हुए अथवा गुरुओं के सहवास में बसते हुए अथवा गुरुओं के वास से भिन्न वास में बसते हुए, परद्रव्यों के प्रतिबंध (प्रतिबद्धता) को छोड़ते हुए, हे श्रमण! सदा श्रामण्य में छेदविहीन होकर वर्तन करो। एकस्वद्रव्य-प्रतिबंध ही उपयोगका परिमार्जन करनेवालाहोने से परिमार्जित उपयोगरूप श्रामण्य को परिपूर्णता का आयतन है। उसके सद्भाव में ही परिपूर्ण श्रामण्य होता है। इसलिए ज्ञान में और दर्शनादिक में सदा प्रतिबद्ध रहकर मूलगुणों में सावधानीपूर्वक विचरण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि ज्ञानदर्शनस्वभावी शुद्धात्मद्रव्य में प्रतिबद्ध होकर शुद्ध अस्तित्वमात्र से वर्तन करना चाहिए।' यद्यपि इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुसरण करते हैं; तथापि तथाहि' कहकर कुछ विशेष स्पष्टीकरण
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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