SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ प्रवचनसार ____ अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं - वह बन्धुवर्ग से इसप्रकार पूछता है, विदा लेता आत्मा न किंचनापि युष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीतः, तत आपृष्टा यूयं, अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योति: आत्मानमेवात्मनोऽनादिबन्धुमुपसर्पति। ____ अहोइदंजनशरीरजनकस्यात्मन्, अहो इदंजनशरीरजनन्या आत्मन्, अस्य जनस्यात्मान युवाभ्यांजनितोभवतीति निश्चयेन युवांजानीतः, तत इममात्मानं युवां विमुञ्चतं, अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योति: आत्मानमेवात्मनोऽनादिजनकमुपसर्पति। अहो इदंजनशरीररमण्या आत्मन, अस्य जनस्यात्मानं न त्वं रमयसीति निश्चयेन त्वं जानीहि, तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योति: स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पति। अहो इदंजनशरीरपुत्रस्यात्मन्, अस्य जनस्यात्मनो न त्वं जन्यो भवसीति निश्चयेन त्वं जानीहि, तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योति: आत्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति । एवं गुरुकलत्रपुत्रेभ्य आत्मानं विमोचयति। तथा अहो कालविनयोपधानबहुमानानिह्नवार्थव्यञ्जनतदुभयसंपन्नत्वलक्षणज्ञानाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे।है कि अहो ! इस पुरुष के शरीर के बन्धुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ! इस पुरुष का आत्मा किंचित्मात्र भी तुम्हारा नहीं है - इसप्रकार तुम निश्चय से जानो। इसलिए मैं तुमसे पूछकर विदा लेता हैं। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हई है - ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अनादि बन्धु के पास जारहा है। अहो! इस पुरुष के शरीर के जनक (पिता) के आत्मा! अहो! इस पुरुष के शरीर की जननी (माता) के आत्मा! इस पुरुष का आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित (उत्पन्न) नहीं है - ऐसा तुम निश्चय से जानो। इसलिए तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है - ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी जनक-जननी के पास जा रहा है। अहो! इस पुरुष के शरीर की रमणी (स्त्री) के आत्मा! तुम इस पुरुष के आत्मा कोरमण नहीं कराते - ऐसा तुम निश्चय से जानो। इसलिए तुम इस आत्माको छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है - ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि-रमणी के पास जा रहा अहो! इस पुरुष के शरीर के पुत्र के आत्मा! तू इस पुरुष के आत्मा का जन्य (उत्पन्न किया गया पुत्र) नहीं है - ऐसा तुम निश्चय से जानो। इसलिए तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हई है - ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अनादि-जन्य
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy