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________________ ३७० प्रवचनसार जो व्यक्ति स्त्री-पुत्रादि, धन-धान्य, रुपया-पैसा आदि परपदार्थों में ये मेरे नहीं हैं और मैं इनका नहीं हूँ; ये मेरे स्वामी नहीं हैं और मैं इनका स्वामी नहीं हूँ, मैं इनका कर्ता-भोक्ता नहीं हूँ और ये मेरे कर्ता-भोक्ता नहीं हैं - इसप्रकार पर में एकत्व-ममत्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धि छोड़कर 'मैं तो एक शुद्धज्ञानमय ही हैं - इसप्रकार अपने में अपनापन स्थापित करते हैं: वे उपयोग को पर में से हटाकर अपने में जोड़ते हैं और सन्मार्गी हो जाते हैं, शुद्धात्मा हो जाते हैं। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ भी विगत गाथा के अनुसार राग-द्वेष परिणामों को स्व की मर्यादा में शामिल करके उनका स्वामी, कर्ता-भोक्तापने को शुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला निश्चयनय कहा है और परद्रव्यों का स्वामित्व और कर्तृत्वभोक्तृत्व को अशुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला व्यवहारनय कहा है। 'अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की और शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है' - विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि ध्रुव होने से एकमात्र शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य है और उसके अतिरिक्त देहादि सभी पदार्थ अध्रुव होने से उपलब्ध करने योग्य नहीं हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथ ध्रुवत्वात् शुद्ध आत्मैवोपलम्भनीय इत्युपदिशति । अथाध्रुवत्वादात्मनोऽन्यन्नोपलभनीयमित्युपदिशति एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं । ध्रुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं ।।१९२।। देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ।।१९३।। एवं ज्ञानात्मानं दर्शनभूतमतीन्द्रियमहार्थम् । ध्रुवमचलमनालम्बं मन्येऽहमात्माकं शुद्धम् ।।१९२।। देहा वा द्रविणानि वा सुख-दु:खे वाथ शत्रुमित्रजनाः । जीवस्य न सन्ति ध्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ।।१९३।। आत्मनो हि शुद्ध आत्मैव सदहेतुकत्वेनानाद्यनन्तत्वात् स्वतःसिद्धत्वाच्च ध्रुवो, न किंचनाप्यन्यत्। शुद्धत्वं चात्मन: परद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चैकत्वात्। तच्च ज्ञानात्मकत्वादर्शनभूतत्वादतीन्द्रियमहार्थत्वादपचलत्वादनालम्बत्वाच्च । ज्ञानमेवात्मनि बिभ्रतः स्वयं दर्शन भूतस्य चातन्मयपरद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम्। (हरिगीत ) इसतरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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