SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३५३ विगत गाथाओं में द्रव्यबंध और भावबंध का स्वरूप स्पष्ट कर यह बता दिया है कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है। अब इस १७९वीं गाथा में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि द्रव्यबंध का हेतु होने से भावबंध ही वास्तविक बंध है, निश्चयबंध है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) रागी बाँधे कर्म छुटे राग से जो रहित हैं। यह बंध का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह।।१७९|| रागी आत्मा कर्म बाँधता है और रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है - यह निश्चय से जीवों के बंध का संक्षेप जानो। यह गाथा इस प्रकरण के निष्कर्ष की गाथा है और इसमें दो टूक शब्दों में कह दिया गया है कि बंध के कारण एकमात्र रागादि भाव ही हैं। यतो रागपरिणत एवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा बध्यते, न वैराग्यपरिणतः, अभिनवेन द्रव्यकर्मणारागपरिणतो न मुच्यते वैराग्यपरिणत एव, बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च, न मुच्यते रागपरिणतः, मुच्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते; ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः ।।१७९।। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "मोह-राग-द्वेष परिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्मों से बंधता है: वैराग्यपरिणत जीव कर्मों से नहीं बंधता। इसीप्रकार मोह-राग-द्वेष परिणत जीव नवीन द्रव्यकर्मों से मुक्त नहीं होता और वैराग्य परिणत जीव ही मुक्त होता है। राग परिणत जीव, सम्पर्क में आनेवाले नवीन द्रव्यकर्मों से और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्मों से बंधता ही है, मुक्त नहीं होता और वैराग्यपरिणत जीव सम्पर्क में आनेवाले नवीन द्रव्यकर्मों और पुराने द्रव्यकर्मों से मुक्त ही होता है, बंधता नहीं। इससे निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का साधकतम हेतु होने से राग परिणाम ही निश्चय से बंध है।" आचार्य जयसेन उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हुए अन्त में लिखते हैं कि रागपरिणाम बंध का कारण है - ऐसा जानकर सम्पूर्ण रागादि विकल्पों के त्यागपूर्वक विशुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वभावी निजात्मतत्त्व कीभावना निरन्तर भाना चाहिए।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy