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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३४७ पुद्गलद्रव्य में पाई जाती हैं; अतः विविध पुद्गल परमाणुओं का स्कंधरूप बंध तो संभव है; पर अरूपी होने से आत्मा में स्पर्श गुण का अभाव है; इसकारण उसमें स्निग्धता और रूक्षता भी संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में आत्मा के साथ पौद्गलिक कर्मों का बंध कैसे हो सकता है ? ___ उक्त शंका का समाधान करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि जिसप्रकार अमूर्त आत्मा मूर्त पुद्गल को देखता-जानता है; उसीप्रकार यह अमूर्त आत्मा मूर्त पौद्गलिक कर्मों से बंधता भी है। तात्पर्य यह है कि निश्चयनय से न तो पौगलिक कर्मों को देखता-जानता है और न उनसे बंधता ही है; किन्तु जिसप्रकार व्यवहारनय से पौगलिक कर्मों को देखता-जानता है; उसीप्रकार उनसे बंधता भी है। व्यवहारनय से यहाँ आचार्यदेव कह रहे हैं कि आत्मा का रूपी पदार्थों को देखनाजानना दुर्घट भी नहीं है; क्योंकि पर को देखना-जानना तो निरन्तर हो ही रहा है। आत्मा पर को देखता-जानता है - यह बात तो जगप्रसिद्ध है। उदाहरण भी उसी को बनाया जाता है,जो प्रतिवादी को भी स्वीकार हो। जो बात सम्पूर्ण जगत को स्वीकार होती है, वह बात तो वादी-प्रतिवादी - दोनों को स्वीकार होती ही है। इस बात को यहाँ मिट्टी के बैल और उसे जानने वाले बालक के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। यद्यपि बालक और मिट्टी के बैल के बीच अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवाल है; क्योंकि वे भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं और भिन्न-भिन्न पदार्थों के बीच अत्यन्ताभाव होता है; तथापि बालक उस मिट्टी के बैल को जानता-देखता तो है ही। वह बालक उक्त बैल को देखकर उस पर रीझता है, उसे अपना मानता है, उससे राग करता है। यदि कोई व्यक्ति उसको मारे, पीटे, तोड़े तो वह दु:खी होता है; तोड़-फोड़ करनेवाले से द्वेष करता है। इसप्रकार उक्त अपनापन व राग-द्वेष के कारण वह बालक स्वयं ही दु:खी होता है और बंधन को प्राप्त होता है। इसीप्रकार यह आत्मा पर-पदार्थों को देखता-जानता हुआ, उनमें अपनापन करता है, उनसे राग-द्वेष करता है और स्वयं ही बंध को प्राप्त होता है। यद्यपि बालक का, जानने में आनेवाले मिट्टी के बैल से पारमार्थिक संबंध नहीं है; तथापि ज्ञेयरूप बैल के निमित्त से उसके ज्ञान में भी एक बैल बन गया है, बैल का आकार बन गया है; उसके साथ बालक का संबंध है; क्योंकि वह उसके ज्ञान की रचना है; अत: ज्ञानाकार है। वह संबंध उसके निमित्तरूप बैल के साथ के संबंध के व्यवहार को बताता है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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