SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० प्रवचनसार कि आत्मा लिंग अर्थात् इन्द्रियों और अनुमान से नहीं; अपितु स्व-पर पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है। आरंभ में पाँच बोल नास्तिपरक-नकारात्मक (निगेटिव) थे; क्योंकि उनमें यही कहा गया था कि आत्मा इन्द्रियों और अनुमान से न तो जानता ही है और न जाना ही जाता है; अब इस छठवें बोल में यह कहा गया है कि आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है; इसलिये यह अस्तिपरकसकारात्मक (पॉजिटिव) बोल है। अबतक के बोल इन्द्रिय, अनुमान और प्रत्यक्ष संबंधी थे और अब आगे के सातवें से ग्यारहवें बोल तक के पाँच बोल उपयोग संबंधी हैं। ध्यान रहे उपयोग आत्मा का लक्षण है और आत्मा उपयोगलक्षण से जानने में आनेवाला लक्ष्य है। इसप्रकार आत्मा और उपयोग में लक्ष्य-लक्षण संबंध है। आत्मा की पहिचान उपयोग लक्षण से ही होती है। ७-९ - सातवें बोल में यह कहा है कि उपयोग लक्षण लिंग द्वारा ज्ञेयपदार्थों को ग्रहण नहीं करता अर्थात् उनका आलम्बन नहीं लेता; इसलिए आत्मा अलिंगग्रहण है। तात्पर्य यह है कि आत्मा के बाह्य पदार्थों के आलम्बनवाला ज्ञान नहीं है। आठवें बोल में यह कहा गया है कि आत्मा उपयोग लक्षण लिंग को बाहर से नहीं लाता और नौवें बोल में यह कहा है कि आत्मा के उपयोग लक्षण लिंग का पर के द्वारा हरण नहीं हो सकता। इसप्रकार भगवान आत्मा के उपयोगलक्षण को न तो ज्ञेयों के आलंबन की जरूरत है, न उसे बाहर से लाने की जरूरत है और न उसके अपहरण हो जाने के भय से आक्रान्त होने की आवश्यकता है। १०. 'भगवान आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी है - इस अर्थ के सूचक दशवें बोल में यह कहा गया है कि जिसप्रकार सूर्य में मलिनता नहीं है; उसीप्रकार भगवान आत्मा के उपयोग लक्षण में भी मलिनता नहीं है, विकार नहीं है। चन्द्रमा में कलंक है, मलिनता है; पर सूर्य में कलंक नहीं है, मलिनता नहीं है। यही कारण है कि यहाँ चन्द्रमा का उदाहरण न देकर सूर्य का उदाहरण दिया गया है। ११. आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त हैं' - ऐसे भाव को व्यक्त करनेवाले ग्यारहवें बोल में कहा गया है कि जिसके उपयोग लक्षण लिंग द्वारा पौद्गलिक कर्मों का ग्रहण नहीं है, बंध नहीं है; वह आत्मा अलिंगग्रहण है। उपयोग संबंधी १०वें बोल में यह कहा गया है कि भगवान आत्मा में मलिनता नहीं है, शुभाशुभरूप भावकर्म नहीं है और ११वें बोल में यह कहा गया है कि वह द्रव्यकर्मों से असंयुक्त
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy