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________________ ३३४ प्रवचनसार अरसादि विशेषणों का एक-एक अर्थ ही किया गया है, जबकि अलिंगग्रहण का एक सामान्य अर्थ के अतिरिक्त बीस अर्थ और किये हैं; जो अपने-आप में अद्भुत हैं, गहराई से समझने योग्य हैं, मंथन करने योग्य हैं। तत्त्वप्रदीपिका में किये विशेष अर्थों पर विचार करने के पूर्व एक बात और भी जान लेना जरूरी है और वह यह कि मूल गाथा में पुद्गल के स्पर्श गुण का निषेध करनेवाला कोई शब्द नहीं है, इसकारण उसे आत्मख्याति में छन्दानुरोध से छूटा हुआ मानकर शामिल कर लिया गया है और उसके भी छह अर्थ किये हैं; परन्तु प्रवचनसार की इस तत्त्वप्रदीपिका टीका में आत्मनो हि रसरूपगंधमुणाभावस्वभावत्वात्स्पर्शमुणव्यक्त्यभाक्स्वभावत्वात् शब्दपर्यायाभावस्वभावत्वात्तथा तन्मूलादलिङ्गग्राह्यत्वात्सर्वसंस्थानाभावास्वभावत्वाच्च पुद्गल-द्रव्यविभागसाधनमरसत्वमरूपत्वमगन्धत्वमव्यक्तत्वमशब्दत्वमलिङ्गग्राह्यत्वमसंस्थानत्वं चास्ति । सकलपुद्गलापुद्गलाजीवद्रव्यविभागसाधनं तु चेतनागुणत्वमस्ति। तदेव च तस्य स्वजीवद्रव्यमात्राश्रितत्वेन स्वलक्षणतां बिभ्राणं शेषद्रव्यान्तरविभागंसाधयति । अलिङ्गग्राह्य इति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तद्बहुतरार्थप्रतिपत्तये । तथाहि - (१) न लिंगैरिन्द्रियैाहकतामापन्नस्य ग्रहणं यस्येत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः । (२) न लिंगैरिन्द्रियैर्ग्राह्यतामापन्नस्य ग्रहणं यस्येतीन्द्रियप्रत्यक्षाविषयत्वस्य । (३) न लिंगादिन्द्रियअव्यक्त का ही अर्थ अस्पर्श किया है। जबकि आत्मख्याति में अव्यक्त के अलग से चार अर्थ किये गये हैं। उपर्युक्त सामान्य जानकारी देने के बाद अब यह स्पष्ट करते हैं कि इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र इस ग्रंथ प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में किसप्रकार स्पष्ट करते हैं। टीका का हिन्दी भावानुवाद इसप्रकार है - “रस गुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से, रूप गुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से, गंध गुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से, स्पर्शगुणरूप व्यक्तता के अभावरूप स्वभाववाला होने से, शब्दपर्याय के अभावरूप स्वभाववाला होने से तथा इन सबके कारण लिंग के द्वारा अग्राह्य होने से और सर्व संस्थानों के अभावरूपस्वभाववाला होने से आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है, अस्पर्श (अव्यक्त) है, अशब्द है, अलिंगग्रहण है और अनिर्दिष्ट संस्थानवाला है; इसकारण यह आत्मा पुद्गल से भिन्न है। ___ पुद्गल और अपुद्गल - ऐसे समस्त अजीव द्रव्यों से विभाग का मूल साधन तो चेतनागुणवालाहोना है। मात्र वही स्वजीवद्रव्याश्रित होने से स्वलक्षणपने कोधारण करता
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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