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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३२९ होते हैं; उसीसमय वहीं विद्यमान कार्मणवर्गणायें स्वयमेव ही तदनुरूप कर्मरूप परिणमित हो जाती है, उन्हें कहीं बाहर से नहीं लाना पड़ता। यद्यपि दोनों में सहज निमित्त-नैमित्तिकभाव रहता है; तथापि वे स्वयं ही अपनी-अपनी पर्यायगत योग्यता के कारण परिणमित होते हैं। ___ इसप्रकार इन गाथाओं और उनकी टीका में यह स्पष्ट किया गया है कि पौद्गलिक स्कन्धों का परस्पर बंध एवं कार्मण वर्गणा के स्कंधों का आत्मा के साथ बंध किसप्रकार होता है और उक्त बंध की क्रिया का कर्ता-धर्ता कौन है ।।१६६-१६७ ।। ___ अथात्मनः पुद्गलपिण्डानेतृत्वाभावमवधारयति । अथात्मनः पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्तृत्वाभावमवधारयति - ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो। सुहमेहिं बादरेहिं य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ।।१६८।। कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा। गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ।।१६९।। अवगाढगाढनिचित: पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः। सूक्ष्मैर्बादरैश्चाप्रायोग्यैर्योग्यैः ॥१६८॥ कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभावं न हि ते जीवेन परिणमिताः ।।१६९।। यतो हि सूक्ष्मत्वपरिणतैर्बादरपरिणतैश्चानतिसूक्ष्मत्वस्थूलत्वात् कर्मत्वपरिणमनशक्ति १६६-१६७वीं गाथा में आत्मा पुद्गलपिण्डों का कर्ता नहीं है' - यह सिद्ध करने के उपरान्त अब आगामी गाथाओं में यह सिद्ध करते हैं कि जिसप्रकार यह आत्मा पुद्गलपिण्डों का कर्ता नहीं है; उसीप्रकार उन्हें लानेवाला भी नहीं है तथा यह आत्मा पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप भी नहीं करता। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) भरा है यह लोक सूक्षम-थूल योग्य-अयोग्य जो। कर्मत्व के वे पौदगलिक उन खंध के संयोग से ||१६८|| स्कन्ध जो कर्मत्व के हों योग्य वे जिय परिणति। पाकर करम में परिणमें न परिणमावे जिय उन्हें।।१६९|| यह लोक कर्मत्व के योग्य व अयोग्य सूक्ष्म और बादर - पुद्गल स्कन्धों से ठसाठस भरा
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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