SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ प्रवचनसार शुभ-अशुभ दोनों ही न हों तो कर्म का बंधन न हो।।१५६|| आत्मा उपयोगात्मक है और ज्ञान-दर्शन को उपयोग कहते हैं। आत्मा का यह उपयोग शुभ और अशुभ के भेद से भी दो प्रकार होता है। आत्मनो हि परद्रव्यसंयोगकारणमुपयोगविशेषः । उपयोगो हि तावदात्मनः स्वभावश्चैतन्यानुविधायिपरिणामत्वात्। स तु ज्ञानं दर्शनं च, साकारनिराकारत्वेनोभयरूपत्वाच्चैतन्यस्य। अथायमुपयोगोद्वेधा विशिष्यतेशुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धोनिरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविध: शुभोऽशुभश्च ।।१५५।। उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यसंयोगकारणमशुद्धः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरागवशात् शुभाशुभत्वेनोपात्तद्वैविध्यः, पुण्यपापत्वेनोपात्तद्वैविध्यस्य परद्रव्यस्य संयोगकारणत्वेन निर्वर्तयति । यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशुद्धस्याभावः क्रियते तदा खलूपयोगःशुद्ध एवावतिष्ठते। स पुनरकारणमेव परद्रव्यसंयोगस्य ।।१५६।। उपयोग यदि शुभ हो तो पुण्य का संचय होता है और यदि अशुभ हो तो पाप का संचय होता है तथा दोनों के अभाव में कर्मों का संचय नहीं होता। उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “वस्तुत: परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष है। चैतन्यानुविधायी परिणाम होने से उपयोग आत्मा का स्वभाव है और वह उपयोग ज्ञान-दर्शनरूप है; क्योंकि वह साकार और निराकाररूप से उभयरूप है। यह उपयोग शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का होता है। इनमें शुद्धोपयोग निरुपराग (निर्विकार) है और अशुद्धोपयोग सोपराग (सविकार) है। शुभ और अशुभ के भेद से अशुद्धोपयोग भी दो प्रकार का है; क्योंकि वह विशुद्धिरूप और संक्लेशरूपहोता है। ___ परद्रव्य के संयोग का कारण अशुद्धोपयोग है। वह अशुद्धोपयोग विशुद्धि और संक्लेशरूप उपराग के कारण शुभ और अशुभरूप द्विविधता को प्राप्त होता हुआ पुण्य-पाप के बंध का कारण होता है। पुण्य से अनुकूल और पाप से प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते हैं। ___ जब दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोगों का अभाव हो जाता है, तब उपयोग शुद्ध ही रहता है और वह शुद्धोपयोग परद्रव्य के संयोग का अकारण ही है।"
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy