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________________ ३०८ बंधता है। इसप्रकार प्राण पुराने पौद्गलिक कर्म के उदय के कार्य हैं और नये पुद्गल कर्म के बंध के कारण हैं । इसप्रकार प्राण पूर्णत: पौद्गलिक ही हैं । । १४८-१४९ ।। अथ पुद्गलप्राणसन्ततिप्रवृत्तिहेतुमन्तरङ्गमासूत्रयति । अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्गं ग्राहयति - आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे । ण चयदि जाव ममत्तिं देहपधाणेसु विसयेसु ।। १५० ।। जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो ण रज्जदि किह तं पाणा अणुचरंति ।। १५१ ।। आत्मा कर्ममलीमसो धारयति प्राणान् पुनः पुनरन्यान् । न त्यजति यावन्ममत्वं देहप्रधानेषु विषयेषु । । १५० ।। य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति । कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति । । १५१ ।। येययात्मन: पौद्गलिकप्राणानां संतानेन प्रवृत्तिः, तस्या अनादिपौद्गलकर्ममूलं शरीरादिममत्वरूपमुपरक्तत्वमन्तरङ्गो हेतुः ।। १५० ।। प्रवचनसार ‘प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारण भी हैं और कार्य भी हैं ।' विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि पौद्गलिक प्राणों की संतति की प्रवृत्ति और निवृत्ति का अंतरंग हेतु क्या है ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) - ममता न छोड़े देह विषयक जबतलक यह आतमा । कर्म से मलिन हो पुन- पुनः प्राणों को धरे ॥ १५० ॥ उपयोगमय निज आतमा का ध्यान जो धारण करे । इन्द्रियजयी वह विरतकर्मा प्राण क्यों धारण करे ॥ १५१ ॥ जबतक यह कर्ममल से मलिन आत्मा देहप्रधान विषयों में ममत्व नहीं छोड़ता; तबतक बारम्बार अन्य - अन्य प्राणों को धारण करता है । जो आत्मा इन्द्रियादिक का विजयी होकर उपयोगमय आत्मा का ध्यान करता है; वह कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता; उसके प्राणों का संबंध कैसे हो सकता है ? आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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