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________________ ३०० प्रवचनसार अनुकरण करते हैं; तथापि विगत गाथाओं के समान उदाहरण यहाँ भी बदल देते हैं। टीका के अन्त में वे जो बात लिखते हैं; वह बात मात्र इस गाथा का उपसंहार नहीं है; अपितु सम्पूर्ण द्रव्यविशेषाधिकार का उपसंहार है। तात्पर्य यह है कि निम्नांकित कथन सूत्रतात्पर्य नहीं, शास्त्रतात्पर्य है - “अनंतकाल में जो जीव आत्मोपादान से सिद्धसुख को प्राप्त हुए हैं और भविष्यकाल में जो जीव सिद्धसुख को प्राप्त होंगे; वे सभी काललब्धि के वश से ही हुए हैं; तथापि निज परमात्मा ही उपादेय है - ऐसी रुचिरूप वीतरागचारित्र का अविनाभावी जो निश्चयसम्यक्त्व है, उसकी ही मुख्यता है; काल की नहीं, जिसकारण वह हेय है। कहा भी है किं पलविएण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सिज्झहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।।' (हरिगीत) मुक्ती गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का। यह जान लो हे भव्यजन ! इससे अधिक अब कहें क्या।। अधिक कहने से क्या? जो श्रेष्ठ पुरुष भूतकाल में सिद्ध हुए हैं और जो भविष्यकाल में सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व काहीमाहात्म्य जानो।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि कालद्रव्य एक प्रदेशी द्रव्य है, जिसे अप्रदेशी भी कहा जाता है। अनेक प्रदेशीपने के निषेध के लिए उसे अप्रदेशी कहा गया था; किन्तु कुछ लोगों ने उसे सचमुच ही अप्रदेशी मान लिया । यही कारण है कि यहाँ इस बात पर वजन दिया जा रहा है कि वह एक प्रदेशी है, प्रदेशों से पूर्णत: रहित नहीं। इसलिए वह प्रदेशवान द्रव्य है, अप्रदेशी नहीं। न तो वह धर्मद्रव्य के समान असंख्यप्रदेशी ही है और न एक प्रदेश से भी रहित है। यहाँ एक प्रश्न यह संभव है कि विगत गाथाओं में तो कालद्रव्य को अप्रदेशी नास्तिकाय पुरी शक्ति लगाकर सिद्ध करते आये हैं और अब उतने ही जोर से यह बात कही जा रही है कि वह अप्रदेशी नहीं है, सप्रदेशी ही है। इसका कारण क्या है ? अरे भाई ! बात यह है कि कालद्रव्य मूलत: तो एकप्रदेशी ही है; न वह बहुप्रदेशी है और न प्रदेश रहित अप्रदेशी ही है। यदि कालद्रव्य अप्रदेशी नहीं है तो फिर उसे अप्रदेशी क्यों कहा जाता है ? बहुप्रदेशत्व के निषेध के लिए उसे अप्रदेशी कहा जाता है; किन्तु वह प्रदेशों से पूर्णत: रहित नहीं है, एक प्रदेश तो उसके भी होता ही है। इसमें अधिक विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उक्त कथनों में परस्पर विरोध नहीं है, मात्र विवक्षाभेद है। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका मामकासंस्कृप्तेष्टीकुट, औशडॉ.हुकमचन्द भारिल्ल कृत ज्ञान-ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अंतर्गत द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार समाप्त होता है।...
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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