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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार २९३ असंख्यप्रदेशी होने से और जीव अनवस्थित (अस्थिर) असंख्य प्रदेशी होने से तिर्यक्प्रचय वाले द्रव्य हैं । यद्यपि द्रव्यदृष्टि से पुद्गलद्रव्य अनेक प्रदेशी होनेरूप शक्ति से संपन्न एक प्रदेश वस्थितासंख्येयप्रदेशत्वात् पुदगलस्य द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तैकप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्यक्प्रचयः। न पुनः कालस्य, शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात् । ऊर्ध्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पर्शित्वेन सांशत्वाद्र्व्यवृत्ते: सर्वद्रव्याणामनिवारित एव। अयं तु विशेष: समयविशिष्टवृत्तिप्रचयः शेषद्रव्याणामूर्ध्वप्रचयः, समयप्रचयः एव कालस्योर्ध्वप्रचयः। शेषद्रव्याणां वृत्तेहि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समयविशिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वत: समयभूतत्वात्तन्नास्ति ।।१४१।। वाला है; तथापि पर्यायदृष्टि से अनेक (संख्यात, असंख्यात और अनंत) प्रदेशवालाहै; इसलिए उसके भी तिर्यक्प्रचय है। परन्तु कालद्रव्य के तिर्यक्प्रचय नहीं है; क्योंकि वह शक्ति और व्यक्ति (प्रगटता) दोनों से ही एक प्रदेशवालाही है। ऊर्ध्वप्रचय तोसभी द्रव्यों के अनिवार्यरूप से होता ही है; क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (पर्यायें) तीन (भूत, भविष्य और वर्तमान) कोटियों को स्पर्श करती है; इसलिए अंशों से युक्त है। इतना विशेष है कि समयों का प्रचय (समूह) कालद्रव्य काऊर्ध्वप्रचय है और शेष द्रव्यों का समयविशिष्ट वृत्तियों का प्रचय ऊर्ध्वप्रचय है; क्योंकि कालद्रव्य की वृत्ति स्वत: समयभूत है और अन्य द्रव्यों की वृत्ति समय से अर्थान्तरभूत (अन्य) होने से समयविशिष्ट है और कालद्रव्य की वृत्ति तो स्वत: समयभूत होने से समयविशिष्ट नहीं है।" यद्यपि आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते समय आचार्य अमृतचन्द्र का ही अनुकरण करते हैं; तथापि वे अपनी बात को सिद्ध भगवान का उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं। यह भी बताते हैं कि तिर्यक्प्रचय को तिर्यक्सामान्य, विस्तारसामान्य और अक्रमानेकान्त भी कहते हैं। इसीप्रकार ऊर्ध्वप्रचय को ऊर्ध्वसामान्य, आयतसामान्य और क्रमानेकान्त भी कहते हैं। इसप्रकार इस गाथा में तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि ऊर्ध्वप्रचय तो पर्यायों के समूहरूप होने से सभी द्रव्यों में होता है; पर तिर्यक्प्रचय प्रदेशों के समूहरूप होने से कालद्रव्य में नहीं है; क्योंकि वह एकप्रदेशी अर्थात् अप्रदेशी है। ऊर्ध्वप्रचय की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य अनादि-अनन्त है, त्रिकाली ध्रुव है और तिर्यक्प्रचय की अपेक्षा पाँच द्रव्य अस्तिकायरूप हैं। काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों के ऊर्ध्वप्रचय
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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