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________________ २८४ प्रवचनसार कहते हैं। इस गाथा की टीका में आचार्य जयसेन मात्र इतना ही लिखते हैं कि पाँच अस्तिकायों में अथ क्वामी प्रदेशिनोऽप्रदेशाश्चावस्थिता इति प्रज्ञापयति - लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहिं आददो लोगो। सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥१३६।। लोकालोकयोर्नभो धर्माधर्माभ्यामाततो लोकः। शेषौ प्रतीत्य कालो जीवः पुनः पुद्गलाः शेषौ ।।१३६।। आकाशं हि तावत् लोकालोकयोरपि, षड्द्रव्यसमवायासमवाययोरविभागेन वृत्तत्वात् । धर्माधर्मी सर्वत्र लोके, तन्निमित्तगमनस्थानानांजीवपुद्गलानां लोकाद्वहिस्तदेकदेश च जीवास्तिकाय उपोदय है। उसमें भी पंचपरमेष्ठीरूप पर्याय उपादेय है; उसमें अरहंत और सिद्धदशा उपादेय है, उसमें भी सिद्धदशा उपादेय है। अन्त में लिखते हैं कि वस्तुत: बात यह है कि रागादि सम्पूर्ण विकल्प समूहों के निषेध के समय सिद्ध जीव के समान अपनाशुद्धात्मस्वरूपही उपादेय है। इस गाथा में कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसके न होने से ग्रन्थ की विषयवस्तु में कोई व्यवधान आता हो। जो बातें विगत गाथाओं में कही जा चुकी हैं; उन्हीं को मात्र दुहरा दिया है। हाँ, यह बात विशेष है कि इसकी टीका में शुद्धात्मस्वरूप भगवान आत्मा को परम उपादेय बताया गया है।।११।। विगत गाथा में सप्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्यों की चर्चा की। अब इस गाथा में वे द्रव्य कहाँ-कहाँ रहते हैं अर्थात् कौन कहाँ रहता है - इसकी चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) गगन लोकालोक में अर लोक धर्माधर्म से। है व्याप्त अर अवशेष दो से काल पुद्गलजीव हैं।।१३६|| आकाश लोकालोक में और धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल लोकाकाश में रहते हैं। आ. अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "आकाश लोक और अलोक में है; क्योंकि वह छह द्रव्यों के समवाय और असमवाय में बिना विभाग के रहता है। धर्म और अधर्म द्रव्य लोक में सर्वत्र हैं; क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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