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________________ २७० प्रवचनसार सर्वद्रव्यवर्तनानिमित्तभूतश्च कालो नित्यदुर्ललितस्तत्तावदाकाशं शेषाण्यशेषाणि द्रव्याणि चेत्यमीषां समवाय आत्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य स लोकः । यत्र यावति पुनराकाशे जीवपुद्गलयोर्गतिस्थिती न संभवतो धर्माधर्मौ नावस्थितौ न कालो दुर्ललितस्तावत्केवलमाकाशमात्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य सोऽलोकः ।। १२८ ।। अथ क्रियाभावतद्भावविशेषं निश्चिनोति - उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स । परिणामा जायंते संघादादो व भेदादो ।।१२९।। उतना आकाश और शेष समस्त द्रव्य - इन सबका समुदाय लोक है और यही लोक का लक्षण है। जितने आकाश में जीव तथा पुद्गल की गति-स्थिति नहीं होती, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य नहीं रहते और कालाणु भी नहीं रहते; उतना अकेला आकाश ही अलोक है और यही अलोक का लक्षण है ।" यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि जितने आकाश में छह द्रव्य रहते हैं, अकेले उतने आकाश का नाम लोक नहीं है; अपितु उन छह द्रव्यों के समूह का नाम लोक है । महान आध्यात्मिक कवि पण्डित दौलतरामजी के ध्यान में यह बात थी; यही कारण है कि उन्होंने छहढाला में लिखी लोकभावना संबंधी छन्द में लोक को षट्द्रव्यमयी लिखा है । आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में भी यह बात अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखी है कि छह द्रव्यों का समूह लोक है। बहुत से लोग लोकाकाश और लोक में अन्तर नहीं कर पाते। वे लोकाकाश और लोक को एक ही समझते हैं; जबकि उन दोनों में अन्तर है। लोक (विश्व) छह द्रव्यों के समूह का नाम है और लोकाकाश अकेले आकाशद्रव्य का वह भाग है, जहाँ छहों द्रव्य पाये जाते हैं ॥ १२८ ॥ वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करने के लिए द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार में छह द्रव्यों का वर्गीकरण अनेकप्रकार से किया गया है, जिसमें अभीतक जीव-अजीव और लोक- अलोक की चर्चा हुई; अब इस गाथा में क्रियावान और भाववान की बात करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है( हरिगीत ) जीव अर पुद्गलमयी इस लोक में परिणमन से । भेद से संघात से उत्पाद-व्यय-ध्रुवभाव हों ।। १२९ ।। पुद्गलजीवात्मक लोक के परिणाम से और संघात व भेद से उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय होते हैं।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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