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________________ २६७ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार द्रव्यं जीवोऽजीवो जीव: पुनश्चेतनोपयोगमयः। पुद्गलद्रव्यप्रमुखोऽचेतनो भवति चाजीवः ।।१२७।। इह हि द्रव्यमेकत्वनिबन्धनभूतं द्रव्यत्वसामान्यमनुज्झदेव तदधिरूढविशेषलक्षणसद्भावादन्योन्यव्यवच्छेदन जीवाजीवात्वविशेषमुपढौकते। तत्र जीवस्यात्मकद्रव्यमेवैका व्यक्तिः । अजीवस्य पुन: पुद्गलद्रव्यं धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं कालद्रव्यमाकाशद्रव्यं चेति पञ्च व्यक्तयः। विशेषलक्षण जीवस्य चेतनोपयोगमयत्वं, अजीवस्य पुनरचेतनत्वम् । तत्र यत्र स्वधर्मव्यापकत्वात्स्वरूपत्वेन द्योतमानयानपायिन्या भगवत्या संवित्तिरूपया चेतनया तत्परिणामलक्षणेन द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निर्वृत्तत्वमवतीर्णं प्रतिभाति सजीवः। यत्र पुनरुपयोगसहचरिताया यथोदितलक्षणायाश्चेतनाया अभावाबहिरन्तश्चाचेतनत्वमवतीर्णं प्रतिभाति सोऽजीवः।।१२७।। द्रव्य जीव और अजीव हैं। उनमें चेतना और उपयोगमय जीव हैं और पुदगलादिअचेतन द्रव्य अजीव हैं। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इस लोक में एकत्व के कारणभूत द्रव्यत्वसामान्य को छोड़े बिना ही, विशेष लक्षणों के सद्भाव के कारण एक-दूसरे से पृथक् किये जाने पर द्रव्य, जीवत्व और अजीवत्वरूप विशेष को प्राप्त होते हैं। उनमें जीव का तो आत्मद्रव्य' ऐसा एक ही प्रकार है और अजीव के पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य - ये पाँच प्रकार हैं। इनमें जीव का विशेष लक्षण चेतना-उपयोगमयत्व है और अजीव का विशेष लक्षण अचेतनत्व है। स्वधर्मों में व्याप्त होने से स्वरूपरूपसे प्रकाशित होती हुई, अविनाशी, भगवती, संवेदनरूपचेतनाके द्वारा तथा चेतनापरिणामलक्षण द्रव्यपरिणतिरूप उपयोग के द्वारा जिसमें निष्पन्नपना अवतरित प्रतिभासित होता है; वह जीव है और जिसमें उपयोग के साथ रहनेवाली यथोक्त चेतना का अभाव होने से बाहर तथाभीतर अचेतनपना अवतरित प्रतिभासित होता है; वह अजीव है।" आचार्य जयसेन उक्त गाथा के भाव को यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि उक्त बात को नयविभाग से स्पष्ट कर देते हैं। इसप्रकार इस गाथा में मात्र इतना ही कहा है कि यद्यपि द्रव्यत्वसामान्य की अपेक्षा सभी पदार्थ द्रव्य हैं; तथापि द्रव्य एक नहीं; अनेक हैं, अनेकप्रकार के हैं। उन अनेक प्रकारों में एक प्रकार यह भी है कि चेतना लक्षणवाले कुछ द्रव्य जीव हैं और चेतना लक्षण से रहित शेष सभी पुदगलादि द्रव्य अजीव हैं।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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