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________________ २६० प्रवचनसार ज्ञान कर्मरु कर्मफल परिणाम ही हैं आत्मा || १२५ || आत्मा परिणामात्मक है । परिणाम ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होता है; इसलिए ज्ञान, कर्म और कर्मफल आत्मा है - ऐसा समझना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “वस्तुत: आत्मा परिणामस्वरूप ही है; क्योंकि 'परिणाम स्वयं आत्मा है' - ऐसा ११२वीं गाथा में आचार्यदेव ने स्वयं ही कहा है। परिणाम चेतनास्वरूप होने से ज्ञान, कर्म और कर्मफल रूप होने के स्वभाववाला है; क्योंकि चेतना तन्मय अर्थात् ज्ञानमय, कर्ममय और कर्मफलमय होती है; इसलिए ज्ञान, कर्म और कर्मफल आत्मा ही हैं । इसप्रकार शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य का संपर्क असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर प्रलीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है । " आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का अर्थ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका का पूर्णत: अनुकरण करते हुए अन्त में निष्कर्ष के रूप में मात्र इतना जोड़ देते हैं कि परिणामी आत्मा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप शुद्धोपयोग से मोक्ष को और शुभ-अशुभ परिणामों से बंध को साधता है, प्राप्त करता है । इसप्रकार इस गाथा में यह बात स्पष्ट की गई है कि यहाँ स्वद्रव्य - परद्रव्य की पृथकता के संदर्भ में स्व के द्रव्य-गुण- पर्याय 'स्व' में और पर के द्रव्य-गुण- पर्याय 'पर' में शामिल होते हैं। अपने गुण-पर्याय भी पर हैं- ऐसी बात यहाँ नहीं है । समयसार में गुणभेद, प्रदेशभेद और पर्यायों को पर कहकर उनसे भिन्न स्वद्रव्य को शुद्ध द्रव्य कहा जाता है और यहाँ अपने गुण-पर्याय सहित द्रव्य को ही शुद्ध द्रव्य कहा गया है। यहाँ पर जो स्व-पर का भेदविज्ञान करना है, वह इसप्रकार का ही है कि स्वद्रव्यगुण- पर्याय 'स्व' एवं परद्रव्य-गुण- पर्याय 'पर' | यही कारण है कि यहाँ अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा परिणामात्मक है; इसकारण ज्ञानरूप परिणमन, कर्मरूप परिणमन और कर्मफलरूप परिणमन आत्मा ही है और अन्त में तो यहाँ तक लिख दिया है कि शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य का संपर्क असंभव है और अपनी पर्यायें अपने में समा गई हैं; इसकारण आत्मा शुद्ध ही है, शुद्ध ही रहता है। समयसार और प्रवचनसार की कथनपद्धति में मूलभूत अन्तर यह है कि समयसार मुख्यतः आत्मानुभव की दृष्टि से मात्र निज त्रिकाली ध्रुव आत्मा को ही निज में शामिल करता है और प्रवचनसार वस्तुस्वरूप की मुख्यता से अपने द्रव्य, गुण और पर्यायें - इन तीनों को 'स्व' में शामिल करता है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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