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________________ २५४ प्रवचनसार इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "द्रव्यकर्मों के चिपकने का हेतु आत्मा का संसार नामक विकारी परिणाम हैं। अब प्रश्न होता है कि उक्त परिणाम का हेतु कौन है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि उसका हेतु द्रव्यकर्म हैं, क्योंकि द्रव्यकर्म के संयोग से ही संसार नामक विकारी परिणाम देखा जाता है। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसा मानने पर तोइतरेतराश्रय नामक दोष आयेगा? इसके उत्तर में कहते हैं कि नहीं, ऐसा नहीं होगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्म के साथ संबंद्ध आत्मा का जो पहले का द्रव्यकर्म है; उसकोही यहाँ हेतुरूपसे ग्रहण किया है। __ इसप्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कार्य और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारण है - आत्मा का ऐसा परिणाम उपचार से द्रव्यकर्म ही है और आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।" अथ परमार्थादात्मनो द्रव्यकर्माकर्तुत्वमुद्योतयति - परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया। किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ।।१२२।। परिणामः स्वयमात्मा सा पनः कियेति भवति जीवमयी। क्रिया कर्मेति मता तस्मात्कर्मणो न तु कर्ता ।।१२२।। आत्मपरिणामो हि तावत्स्वयमात्मैव, परिणामिन: परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणाम:साजीवमय्येव क्रिया, सर्वद्रव्याणां परिणामलक्षणक्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात्। इस गाथा में यही कहा गया है कि पुराना द्रव्यकर्म जब उदय में आता है तो उसके निमित्त और अपने अशुद्ध-उपादान से मोह-राग-द्वेषरूप भावसंसार होता है। उक्त मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त और अपनी उपादानगत योग्यता से पौद्गलिक कार्माण वर्गणायें कर्मरूप से परिणमित होकर आत्मा से बंध जाती है। 'द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म - ऐसा मानने पर अर्थात् द्रव्यकर्मों का भावकर्म के आश्रय से और भावकर्मों का द्रव्यकर्मों के आश्रय से उत्पन्न होना मानने पर इतरेतराश्रय नामक दोष आ सकता था; किन्तु यहाँ यह दोष नहीं है; क्योंकि यहाँ जिन पुराने द्रव्यकर्मों के उदय से भावकर्म हुए हैं; भावकर्म के उदय से बंधनेवाले द्रव्यकर्म वे नहीं हैं; अपितु नये ही हैं। अत: उक्त मान्यता पूर्णत: निर्दोष है।।१२१|| विगत गाथा में द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म किसप्रकार होते हैं ? - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा कथंचित् भावकर्म का कर्ता तो है; पर द्रव्यकर्म का कर्ता कदापि नहीं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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