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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार २४१ जीवों को यह सब जीव द्रव्य ही है' - ऐसा भासित होता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को एकान्तत: (पूर्णत: सर्वथा, पूरी तरह, अच्छी तरह) बंद करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है; तब जीवद्रव्य में व्यवस्थित (सुनिश्चित रहनेवाले) नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपनारूप पर्याय विशेषोंको देखने (जानने) वाले और सामान्य कोन देखने (जानने) वाले जीवोंकोवह जीवद्रव्य अन्य-अन्य भासित होता है; क्योंकि जिसप्रकार कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठ की अग्नि कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय है; इसलिए इनसे अनन्य है, पृथक् नहीं है; उसीप्रकार जीव द्रव्य भी उन-उन पर्यायरूप विशेषों के समय उन विशेषों सेतन्मय होने से उनसे अनन्य है, पृथक् नहीं। यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदानारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायेषुव्यवस्थितंजीवसामान्यंजीवसामान्ये चव्यवस्थितानारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते। तत्रैकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं । तत: सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वंचन विप्रतिषिध्यते।।११४।। अथ सर्वविप्रतिषेधनिषेधिकांसप्तभङ्गीमवतारयति - अत्थि त्तिय णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं । पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ।।११५।। और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर दोनों के द्वारा देखा जाता है; तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपनेरूप पर्यायों में व्यवस्थित (सुनिश्चितरूप से रहनेवाला) जीव सामान्य तथा जीव सामान्य में व्यवस्थित नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपनेरूपपर्याय, तुल्यकाल में ही एकसाथ दिखाई देते हैं, जाने जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि एक आँख से देखा जाना एकदेशावलोकन है और दोनों आँखों से देखना सर्वावलोकन है; इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते।" इस गाथा में आचार्यदेव कह रहे हैं कि वस्तु का स्वरूप सामान्य-विशेषात्मक है। उसे जानने के लिए दो आँखें चाहिए - एक द्रव्यार्थिकनय की आँख, जो वस्तु के सामान्यस्वरूप को देखती है और दूसरी पर्यायार्थिकनय की आँख, जो वस्तु के विशेषस्वरूप को देखती है। इसप्रकार प्रमाणज्ञान से दोनों आँखें मिलकर सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को अच्छी तरह
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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