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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार २३९ पर्यायें पर्यायभूत व्यतिरेक व्यक्तित्व के काल में ही सत् (विद्यमान) होने से अन्य कालों में असत् (अविद्यमान) ही हैं। पर्यायों का द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति के साथ गुंथा हुआ जो क्रमानुसार उत्पाद होता है, उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेक व्यक्ति का पूर्व में असत् पना होने से पर्यायें अन्य ही हैं । इसलिए पर्यायों की अन्यता द्वारा पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से पर्यायों से अपृथक् द्रव्य का असत् उत्पाद निश्चित होता है। —अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं - मनुष्य, देवच्या सिद्ध नहीं है और देव, मनुष्य या सिद्ध नहीं है; इसप्रकार न होता हुआजीव अनन्य कैसे हो सकता है ? कंकण आदि पर्यायों में उत्पन्न होनेवाले स्वर्ण की भाँति जीव भी मनुष्यादि पर्यायों में उत्पन्न होता हुआ पर्यायापेक्षा अन्य-अन्य ही है।" अथैकद्रव्यस्यान्यत्वानन्वयत्वविप्रतिषेधमुधुनोति - दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो। हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो।।११४।। द्रव्यार्थिकेन सर्वं द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः। भवति चान्यदनन्यत्तत्काले तन्मयत्वात् ।।११४।। उक्त गाथाओं का भाव यह है कि जिसप्रकार सोने की दृष्टि से देखने पर कंकणादि पर्यायों में परिणमित होता हुआ सोना सोना ही रहता है, अनन्य ही रहता है; अन्य-अन्य नहीं हो जाता। उसीप्रकार द्रव्य की दृष्टि से देखने पर मनुष्यादि पर्यायों में परिणमित होता हुआ जीवद्रव्य जीव ही रहता है, अनन्य ही रहता है; अन्य-अन्य नहीं हो जाता है। इस अपेक्षा सत् का ही उत्पाद होता है। __जिसप्रकार कंकणादि गहनों की दृष्टि से देखने पर कंकणादि पर्यायों में परिणमित सोना कंकणादि ही हो जाता है, अन्य-अन्य ही हो जाता है, अनन्य नहीं रहता। उसीप्रकार मनुष्यादि पर्यायों की दृष्टि देखने पर मनुष्यादि पर्यायों में परिणमित जीव मनुष्यादि ही हो जाता है, अन्यअन्य ही हो जाता है, अनन्य नहीं रहता । इस अपेक्षा से असत् का ही उत्पाद होता है। इन गाथाओं में अनेक तर्क व उदाहरण देकर यही बात समझाने की कोशिश की है कि द्रव्य और पर्याय कथंचित् अन्य-अन्य हैं और कथंचित् अनन्य| जिस अपेक्षा से वे अनन्य हैं, उस अपेक्षा से सत्-उत्पाद है और जिस अपेक्षा से अन्य-अन्य हैं; उस अपेक्षा से असत्उत्पाद है। जैनदर्शन का सम्पूर्ण प्रतिपादन नय सापेक्ष है, स्याद्वादरूप है; उसमें एकान्तवाद को
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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