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________________ २३० की जाती है; उनमें परस्पर अत्यन्ताभाव होता है और एक वस्तु के द्रव्य, गुण, पर्यायों के बीच अद्भाव होता है । जहाँ अत्यन्ताभाव होता है, वहाँ असद्भूतव्यवहारनय लगता है और जहाँ तद्भाव होता है, वहाँ सद्भूतव्यवहारनय लगता है। उक्त सन्दर्भ में विशेष जानकारी करने के लिए लेखक की अन्य कृति 'परमभावप्रकाशक नयचक्र' के व्यवहारनय : भेद-प्रभेद संबंधी प्रकरण का स्वाध्याय करना चाहिए ।। १०७ ।। विगत गाथा में अतद्भाव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि सर्वथा अभाव का नाम अतद्भाव नहीं है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) - द्रव्य वह गुण नहीं अर गुण द्रव्य ना अतद्भाव यह । सर्वथा जो अभाव है वह नहीं अतद्भाव है || १०८ || यद्द्द्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात् । एष ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्ट: ।। १०८ ।। एकस्मिन्द्रव्ये यद्द्रव्यं गुणो न तद्भवति, यो गुणः स द्रव्यं न भवतीत्येवं यद्द्रव्यस्य गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेण तेनाभवनं सोऽतद्भावः । एतावतैवान्यत्वव्यवहारसिद्धेर्न पुर्नद्रव्यस्याभावो गुणो गुणस्याभावो द्रव्यमित्येवंलक्षणोऽभावोऽतद्भाव, एवं सत्येकद्रव्यस्यानेकत्वमुभयशून्यत्वमपोहरूपत्वं वा स्यात् । तथाहि- - यथा खलु चेतनद्रव्यस्याभावोऽचेतनद्रव्यमचेतनद्रव्यस्याभावश्चेतनद्रव्यमिति तयोरनेकत्वं, तथा द्रव्यस्याभावो गुणो गुणस्याभावो द्रव्यमित्येकस्यापि द्रव्यस्यानेकत्वं स्यात् । यथा सुवर्णस्याभावे सुवर्णत्वस्याभाव: सुवर्णत्वस्याभावे सुवर्णस्याभाव इत्युभयशून्यत्वं, तथा द्रव्यस्याभावे गुणस्याभावो गुणस्याभावे द्रव्यस्याभाव इत्युभयशून्यत्वं स्यात् । प्रवचनसार स्वरूप अपेक्षा से जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है और जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है - यह अतद्भाव है, सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं है; ऐसा जिनदेव ने कहा है । इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं 66 'एक द्रव्य में जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है और जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है - इसप्रकार जो द्रव्य का गुणरूप से अभवन (नहीं होना) अथवा गुण का द्रव्यरूप से अभवन है; वह अतद्भाव है; क्योंकि इतने से ही अन्यत्वरूप व्यवहार सिद्ध हो जाता है । 'द्रव्य का अभाव गुण है और गुण का अभाव द्रव्य है - ऐसे लक्षणवाला अभाव अतद्-भाव नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो एक द्रव्य को अनेकत्व आ जावेगा, उभयशून्यता ( दोनों का अभाव ) आ जावेगी अथवा अपोहरूपता आ जावेगी ।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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