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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन १७ का मार्ग है।।११।। अशुभोदयेनात्मा कुनरस्तिर्यग्भूत्वा नैरयिकः। दुःखसहस्रः सदा अभिद्रुतो भ्रमत्यत्यन्तम् ।।१२।। यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमनासादयन्नशुभोपयोगपरिणितमालम्बते तदा कुमनुष्यतिर्यङ्नारकभ्रमणरूपंदुःखसहस्रबन्धमनुभवति। ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोग इति ।।१२।। ११ वीं गाथा में शुद्धोपयोग और शुभोपयोग के फल की चर्चा करने के उपरान्त अब १२वीं गाथा में अशुभोपयोग के फल के संबंध में चर्चा करते हैं । इस गाथा की उत्थानिका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि जिसका चारित्र परिणाम के साथ सम्पर्क असंभव होने से जो अत्यन्त हेय है, अब उस अशुभ परिणाम के फल को स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) अशुभोपयोगी आतमा हो नारकी तिर्यग कुनर। संसार में रुलता रहे अर सहस्रों दुख भोगता।।१२।। अशुभोपयोग से यह आत्मा कुनर, तिर्यंच और नारकी होकर हजारों दुःखों से पीड़ित संसार में सदाही परिभ्रमण करतारहता है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जब यह आत्मा किंचित्मात्र भीधर्मपरिणति प्राप्त न करता हुआ अशुभोपयोग परिणति का अवलंबन करता है; तब वह कुमनुष्य, तिर्यंच और नारकी के रूप में परिभ्रमण करता हुआ हजारों दुःखों के बंधन का अनुभव करता है। अत: अशुभोपयोग में लेशमात्र भी चारित्र न होने से वह अत्यन्त हेय ही है।" उक्त कथन का सार यह है कि अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है; क्योंकि वह पापपरिणतिरूप है। वह स्वयं तो धर्मरूप है ही नहीं, उसके रहते हुए धर्मप्राप्ति का अवसर भी नहीं हैं। अत: आत्मार्थियों को वह सर्वथा छोडने योग्य है।।१२।। शुभाशुभभावस्वरूप अशुद्धोपयोग हेय है और शुद्धोपयोग उपादेय है। अतः आगामी अधिकार में शुद्धोपयोग की चर्चा आरंभ करते हैं।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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