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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार २०१ रहता है। __ आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को सिद्ध भगवान, सेना और वन के उदाहरण से इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि जिसप्रकार मुक्तात्मा कहने से सभी सिद्धों का ग्रहण हो जाता है; सेना कहने पर घोड़ा, हाथी आदि पदार्थों का और वन कहने पर नीम, आम आदि वृक्षों का ग्रहण हो जाता है; उसीप्रकार 'सभी सत् हैं' - ऐसा कहने पर संग्रहनय से सभी पदार्थों का ग्रहण हो जाता है, सादृश्यास्तित्व नामक महासत्ता का ग्रहण हो जाता है। उक्त कथन का सार यह है कि सत्ता दो प्रकार की है - अवान्तरसत्ता और महासत्ता । अवान्तरसत्ता स्वरूपास्तित्व है; जो प्रत्येक द्रव्य में पृथक्-पृथक् है और उसके प्रदेशों, गुणों और पर्यायों में व्याप्त है। महासत्ता वह सत्ता है, जो सामान्यरूप से सभी द्रव्यों में व्याप्त है, उनके गुण-पर्यायों में व्याप्त है। इसे सादृश्यास्तित्व भी कहते हैं। इस बात काध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि हमें अपना अपनत्व स्वरूपास्तित्व में रखना है, सदृशता के आधार पर सभी पदार्थों में नहीं। स्वरूपास्तित्व में द्रव्य-गुण-पर्याय को मिलाकर एक इकाई बनाई गई है। यह समयसार में वर्णित इकाई नहीं है। जिसमें द्रव्य से पर्याय को भिन्न कहा गया है, प्रदेशभेद एवं गुणभेद को भी भिन्न कहा गया है। यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय को मिलाकर एक इकाई है, जिसे स्वरूपास्तित्व कहा गया है। प्रश्न - हमसे अतिरिक्त जो द्रव्य हैं, उनके साथ हमारी जोएकता की कल्पना है, वह किस आधार पर है, उसमें क्या हेतु है ? उत्तर- इसमें हेतु मात्र इतना ही है कि वे भी हैं और हम भी हैं; इसप्रकार मात्र अस्तित्व का हेतु है। इसप्रकार मात्र हैं' की रिश्तेदारी है। मेरे और गधे केसींग में कोई संबंध नहीं है; क्योंकि गधे के सींग की न तो अवान्तरसत्ता है और न ही महासत्ता है; क्योंकि वह है ही नहीं और मैं हूँ। इसप्रकार तुम भी हो और मैं भी हूँ- इसप्रकार यहाँ है' का संबंध है। अब आचार्य कह रहे हैं कि जिसने मात्र अस्तित्व संबंध के आधार पर स्वरूपास्तित्व को भूलकर किसी पर से अपनापन स्थापित कर लिया; वह मिथ्यादर्शन का धारी मिथ्यादृष्टि है। समयसार में यह बताया था कि सादृश्यास्तित्व के आधार पर स्वरूपास्तित्व को भूलकर पर से संबंध स्थापित कर लेना मिथ्यात्व है तथा प्रवचनसार में यह बताया जा रहा है कि उससे मिथ्यात्व न हो जाय - इस डर से उस महासत्तावाले तथ्य से इन्कार करना भी मिथ्यादर्शन ही है। महासत्ता से लेकर अवान्तरसत्ता के मध्य अनन्त सत्ताएँ हैं। 'हम सब एक हैं' - इसमें
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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