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________________ १८६ प्रवचनसार निश्चयरत्नत्रय से रहित जीव तो मिथ्यादृष्टि ही होते हैं; पर निश्चयरत्नत्रय से परिणत जीवों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है और वे तीनों भेद चारित्र की पूर्णताअपूर्णता के आधार पर घटित होते हैं; क्योंकि सम्यग्दर्शन तो अपूर्ण होता ही नहीं। ___ चौथे गुणस्थान में ही क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है; सम्यग्ज्ञान भी सम्यक्-मिथ्या की अपेक्षा सम्यक् ही होता है, पूर्ण सम्यक् ही होता है; भले केवलज्ञान नहीं है, पर सम्यक्पने में कोई अन्तर नहीं होता, कोई अपूर्णता नहीं होती। अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में चारित्र का अंश चतुर्थ गुणस्थान में ही प्रकट हो जाता है और पूर्णता पूर्ण वीतराग होने पर ही होती है तथा सातवें गुणस्थान के योग्य शुद्धोपयोग की अपेक्षा सातवें गुणस्थान में निश्चयचारित्र होता है। इसप्रकार निश्चयरत्नत्रय परिणत जीवों को निम्नांकित तीन भागों में रखा जाता है - (१) निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट हो जाने से चतुर्थ गुणस्थानवाले जीव निश्चयरत्नत्रय से परिणत हैं। इस अपेक्षा तो चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सिद्ध तक सभी जीव स्वसमय ही हैं। (२) आत्मध्यान में स्थित जीवों को ही निश्चयरत्नत्रयपरिणत कहें तो सातवें एवं सातवें गुणस्थान से ऊपर वाले जीव ही स्वसमय कहलायेंगे। (३) यदि पूर्ण वीतरागियों को ही निश्चयरत्नत्रयपरिणत कहें तो बारहवें एवं बारहवें गुणस्थान से आगेवाले ही स्वसमय कहलायेंगे। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि मिथ्यादृष्टि परसमय और सम्यग्दृष्टि से सिद्ध तक स्वसमय - यह अपेक्षा तो ठीक; पर जब मिथ्यादृष्टि को परसमय और पूर्ण वीतरागियों को स्वसमय कहेंगे तो फिर छद्मस्थ सम्यग्दृष्टियों (चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक) को क्या कहेंगे - स्वसमय या परसमय ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए पंचास्तिकाय की १६५वीं गाथा द्रष्टव्य है, जो इसप्रकार है अण्णाणादोणाणी जदि मण्णदिसुद्धसंपओगादो। __ हवदित्ति दुक्खमोखं परसमयरदो हवदि जीवो।। 'शुद्धसम्प्रयोग से दुःखों से मोक्ष होता है' - अज्ञान के कारण यदि ज्ञानी भी ऐसा माने तो वह परसमयरत जीव है। इसी गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि यह सूक्ष्मपरसमय के
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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