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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार १८३ उक्त प्रश्न को ध्यान में रखकर आगामी गाथा ९४ में प्रसंग प्राप्त स्वसमय और परसमय के स्वरूप को विशेष स्पष्ट कर विषय का उपसंहार करते हैं। ये पर्यायेषु निरता जीवा: परसमयिका इति निर्दिष्टाः। आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकसमया ज्ञातव्याः ।।९४।। ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेकमूलमुपगता यथोदितात्मस्वभावसंभावनक्लीवास्तस्मिन्नेवाशक्तिमुपव्रजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलैकान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवैतन्मनुष्यशरीरमित्यहङ्कारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात् प्रच्युत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायन्ते। __ये तु पुनरसंकीर्णद्रव्यगुणपर्यायसुस्थितं भगवंतमात्मनः स्वभावं सकलविद्यानामेकमूलमुपगम्य यथोदितात्मस्वभावसंभावनसमर्थतया पर्यायमात्राशक्तिमत्यस्यात्मनः स्वभाव एव स्थितिमासूत्रयन्ति, ते खलु सहजविजृम्भितानेकान्तदृष्टिप्रक्षपितसमस्तैकान्तदृष्टिपरिग्रहाग्रहा गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में। थित जीव ही हैं स्वसमय-यह कहा जिनवरदेव ने ||९४|| जो जीव पर्यायों में लीन हैं; उन्हें परसमय कहा गया है और जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं. वेस्वसमय जानने। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जो सकल अविद्याओं की मूल जीव-पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायों का आश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना में नपुंसक होने से असमानजातीय द्रव्यपर्याय में ही बल धारण करते हैं; 'मैं मनुष्य हूँ, मेरी यह नरदेह है' - इसप्रकार के अहंकार-ममकार से ठगे गये हैं; निरर्गल एकान्त दृष्टिवाले वे लोग अविचलित चेतनाविलासमात्र आत्म- व्यवहार सेच्युत होकर समस्त क्रियाकलापकोछातीसेलगानेरूप मनुष्यव्यवहार का आश्रय करके रागी-द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ युक्त हो जाने से परसमय होते
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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