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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १६५ जो जिनेन्द्र के उपदेश को प्राप्त कर मोह-राग-द्वेष का नाश करता है; वह अल्पकाल में ही सर्व दुखों से मुक्त हो जाता है। जो निश्चय से ज्ञानात्मक निज को और पर को, निज-निज द्रव्यत्व से संबंद्ध (संयुक्त) जानता है; वह मोह का क्षय करता है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “जिसप्रकार तीक्ष्णतलवारधारी मनुष्य तलवार से शत्रुओं पर अत्यन्त वेग से प्रहार करे, तभी तत्संबंधी दुखों से मुक्त होता है, अन्यथानहीं; उसीप्रकार अतिदीर्घ उत्पातमय संसारमार्ग में किसी भी प्रकार से जिनेन्द्रदेव के अतितीक्ष्ण असिधारा के समान उपदेश को प्राप्त कर जो पुरुष मोह-राग-द्वेष पर अति दृढ़तापूर्वक प्रहार करता है, वही शीघ्र सब दुखों से मुक्त होता है; पथस्थानीयमुपदेशं य एव मोहरागद्वेषाणामुपरि दृढतरं निपातयति स एव निखिलदुःखपरिमोक्षं क्षिप्रमेवाप्नोति, नापरो व्यापार: करवालपाणिरिव। अत एव सर्वारम्भेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषीदामि ।।८८।। य एव स्वकीयेन चैतन्यात्मकेन द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमात्मानं परं च परकीयेन यथोचितेन द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमेव निश्चयत: परिच्छिनत्ति, स एव सम्यगवाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोहं क्षपयति। अत:स्वपरविवेकाय प्रयतोऽस्मि ।।८९।। अन्य कोई व्यापार (प्रयत्न-क्रियाकाण्ड) समस्त दुखों से मुक्त नहीं करता। इसलिए मैं मोह का क्षय करने के लिए सम्पूर्ण आरंभ से, प्रयत्न से पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करता हूँ। जो निश्चय से अपने को और अपने चैतन्यात्मक द्रव्यत्व से संबंद्ध पर को पर के यथायोग्य द्रव्य से संबंद्ध ही जानता है; सम्यक्प्रकार से स्व-पर विवेक को प्राप्त वह पुरुष सम्पूर्ण मोह का क्षय करता है। इसलिए मैं स्व-पर के विवेक के लिए प्रयत्नशील हूँ।" उक्त दोनों गाथाओं और उनकी टीका में मात्र इतनी-सी बात कही है कि जिसप्रकार तलवार धारण करने मात्र से शत्रु को नहीं जीता जाता; जबतक उक्त तलवार का उग्र पुरुषार्थ द्वारा प्रयोग न किया जाय, शत्रु पर वार न किया जाय, तबतक शत्रुओं को समाप्त नहीं किया जा सकता; तत्संबंधी आकुलता भी समाप्त नहीं होती। उसीप्रकार जिनेन्द्र भगवान का उपदेश प्राप्त हो जाने मात्र से कर्म शत्रुओं को नहीं जीता जा सकता; जबतक आत्मा मोह-राग-द्वेष पर तीव्र प्रहार नहीं करता; तबतक मोह-रागद्वेष का नाश नहीं होता; दुखों से मुक्ति प्राप्त नहीं होती; अन्य कोई धार्मिक क्रियाकाण्ड ऐसा नहीं है कि जिससे दुरखों से मुक्त हुआ जा सके। इसलिए जो पुरुष सर्व दुखों से मुक्त होना चाहते हैं; उन्हें जिनेन्द्र भगवान के उपदेश से स्व
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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