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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १५७ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि दया के अभावरूप जो क्रूरता है; वह भी मोह (मिथ्यात्व) का ही चिह्न है और वीतरागतारूप करुणा का अभाव ही सम्यक्त्वरूप धर्म का चिह्न है। कर्तृत्वबुद्धिपूर्वक परजीवों को बचाने या सुखी करने के भावरूप करुणा और मारने या दुखी करने के भावरूप करुणा का अभाव - दोनों ही दर्शनमोह के चिह्न हैं। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि ज्ञानी श्रावक और मुनिराजों के भूमिकानुसार करुणाभाव पाया ही जाता है । जिसप्रकार का करुणाभाव उनके पाया जाता है, वह दर्शनमोह का चिह्न नहीं है; पर वह चारित्रमोह का चिह्न तो है ही । तात्पर्य यह है कि मिथ्यामान्यता पूर्वक अनंतानुबंधी रागरूप करुणा और द्वेषरूप क्रूरता (करुणा का अभाव) दोनों दर्शनमोह के चिह्न हैं और मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय अभावपूर्वक अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों से होनेवाला करुणाभाव यद्यपि यह बताता है कि उनके चारित्रमोह विद्यमान है; अतः वह चारित्रमोह का चिह्न तो है, पर दर्शनमोह का चिह्न कदापि नहीं । आचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकायसंग्रह की समयव्याख्या टीका में ज्ञानी और अज्ञानी के करुणाभाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि किसी तृषादि दुख से पीड़ित प्राणी को देखकर करुणा के कारण उसका प्रतिकार करने की इच्छा से चित्त में आकुलता होना अज्ञानी अनुकंपा है और ज्ञानी की अनुकंपा तो निचली भूमिका में विहरते हुए जगत में भटकते हुए जीवों को देखकर मन में किंचित् खेद होना है । देखो, यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि अनुकंपा दुखरूप होती है। यह बात आचार्य कुन्दकुन्द की मूल गाथा में भी इसी रूप में विद्यमान है। प्रश्न - हम आपकी यह बात मान लेते हैं कि करुणाभाव स्वयं दुखरूप है; क्योंकि दूसरों के दुख को देखकर जो दुख हमें होता है, उसे ही करुणा कहते हैं। पर हम तो आप से स्पष्ट शब्दों पूछना चाहते हैं कि करुणा करना चाहिए या नहीं ? में 'नहीं करना चाहिए' - यह तो आप कह नहीं सकते; क्योंकि ज्ञानी धर्मात्माओं के जीवन में भी करुणाभाव देखा जाता है। अब यदि यह कहा जाय कि करना चाहिए; तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उसे धर्म मानकर ही करें या इसमें भी आपको कुछ कहना है ? उत्तर - हमें बहुत प्रसन्नता है कि आपने हमारी बात मान ली; पर भाई साहब ! यह बात १. पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा १३७ एवं उसकी समयव्याख्या टीका
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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