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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १५३ निर्मूल नाश हो - इसप्रकार क्षय करना चाहिए।" आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का जो अर्थ किया है; उसका भाव इसप्रकार है - "शुद्धात्मादि द्रव्यों, उनके अनंत ज्ञानादि विशेष गुणों और अस्तित्वादि सामान्य गुणों तथा शुद्धात्मपरिणतिरूप सिद्धत्वादि पर्यायों तथा यथासंभव अन्य द्रव्य-गुण-पर्यायों में विपरीत अभिप्राय के कारण तत्त्व में संशय उत्पन्न करनेवालाजीव कामूढभाव दर्शनमोह है। उक्त दर्शनमोह से युक्त, निर्विकार शुद्धात्मा से रहित, इष्टानिष्ट इन्द्रियविषयों में हर्ष-विषादरूप राग-द्वेष - दोनों चारित्रमोह हैं। उक्त दर्शनमोह से आच्छन्न जीव राग-द्वेषरूप होकर निराकुल आत्मतत्त्व के विपरीत आकुलता के कारण क्षोभ (अस्थिरता) को प्राप्त होता है। दर्शनमोह और राग व द्वेषरूप चारित्रमोह - इसप्रकार मोह तीन प्रकार का होता है। मोह-राग-द्वेषरूप परिणत बहिरात्मा जीव के स्वाभाविक सुख से विपरीत नरकादि दुखों के कारणभूत अनेकप्रकार का बंध होता है। अत: रागादि से रहित शुद्धात्मा के ध्यान द्वारावेराग-द्वेष-मोह पूर्णत: नष्ट करनेयोग्य हैं।" इसप्रकार इन गाथाओं और उनकी टीकाओं में यह कहा गया है कि द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी मूढ़ता ही मोह है और इस मोह से आच्छादित जीव का राग-द्वेषरूप परिणमन क्षोभ है। इन मोह और क्षोभरहित आत्मपरिणाम ही समताभाव है, धर्म है। ये मोह-राग-द्वेष ही बंध के कारण हैं; इसकारण नाश करनेयोग्य हैं, हेय हैं। जिसप्रकार धतूरा खानेवाला पुरुष लौकिक विवेक से शून्य हो जाता है; उसीप्रकार द्रव्यगुण-पर्याय संबंधी अज्ञान के कारण यह आत्मा तत्त्वज्ञान संबंधी विवेक से शून्य हो जाता है; उसे स्व-पर का विवेक (भेदज्ञान) नहीं रहता है; इसप्रकार परद्रव्य को स्वद्रव्य, परगुणों को स्वगुण और पर की पर्यायों को अपनी पर्यायें मानता है। जिसप्रकार बाढ़ के प्रबल प्रवाह से नदियों के पुल दो भागों में विभक्त हो जाते हैं; उसीप्रकार उक्त मिथ्यामान्यता के कारण या अज्ञान के कारण यह अज्ञानी आत्मा कर्म को पुण्य और पाप, शुभ और अशुभ - इसप्रकार के दो भागों में विभक्त कर लेता है और अनुकूल लगनेवालों से राग तथा प्रतिकूल लगनेवालों से द्वेष करने लगता है। इसप्रकार इन मोह-रागद्वेष भावों से बंधन को प्राप्त होता हुआ आकुल-व्याकुल होता है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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