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________________ १४८ प्रवचनसार द्वेषरूप परिणमन करता है तो प्रमाद के आधीन होने से शुद्धात्मतत्त्व के अनुभवरूप चिन्तामणिरत्न के चुराये जाने से अंतरंग में खेद को प्राप्त होता है। इसलिए मुझे राग-द्वेष को दूर करने के लिए अत्यन्त जागृत रहना चाहिए।" इसप्रकार इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानकर तथा उसीप्रकार अपने आत्मा को पहिचानकर, उसी में जमकर, रमकर दर्शनमोह अर्थात् मिथ्यात्व का नाश करनेवाला आत्मा भी यदि समय रहते चारित्रमोहनीय का अभाव नहीं करता अर्थात् राग-द्वेष अथवा कषायभावों को नहीं छोड़ता है तो शुद्धात्मा को सम्पूर्णत: उपलब्ध नहीं कर सकता है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि इस गाथा की ऊपर की पंक्ति में तो यह कहा है कि जिसने मोह दूर किया है और आत्मतत्त्व को प्राप्त कर लिया है और दूसरी पंक्ति में यह कहा है कि यदिराग-द्वेष को छोड़े तो शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। क्या उक्त दोनों कथनों में विरोधाभास नहीं है ? नहीं, कोई विरोधाभास नहीं है। बात मात्र इतनी ही है कि आत्पोलब्धि दो प्रकार की होती है १. परपदार्थ और विकारीभावों से भिन्न शुद्ध-बुद्ध त्रिकालीध्रुव निज भगवान के परिज्ञान अर्थात् आत्मानुभूति पूर्वक उसी में अपनापन हो जाने को आत्मोपलब्धि कहते हैं। चौथे गुणस्थान में होनेवाली इस आत्मोपलब्धि में मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायों का उपशमादिरूप अभाव होता है। २. उपर्युक्त आत्मोलब्धि हो जाने पर भी अभी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय संबंधी चारित्रमोह विद्यमान है। मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कर्मों का भी यदि अभी क्षय न हुआ हो तो वे भी सत्ता में तो रहते ही हैं। इन सबको प्रमाद भी कहते हैं। अत: यहाँ कहा गया है कि दर्शनमोह के नाश हो जाने पर भी प्रमादरूपी चोर (ठग) विद्यमान है और तेरी असावधानी का लाभ उठाकर तेरी प्राप्त आत्मोपलब्धिरूप निधि (खजाने) को लूट सकते हैं। अत: प्रत्येक ज्ञानी आत्मा को निरन्तर सावधान रहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद निश्चिन्त होकर बैठ जाना ठीक नहीं है; अपितु राग-द्वेषादि विकारी भावों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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