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________________ १४२ प्रवचनसार को हार में अन्तर्हित किया जाता है; उसीप्रकार चैतन्य को चेतन में ही अन्तर्हित करके जिसप्रकार मात्र हार को जाना जाता है; उसीप्रकार केवल आत्मा को जानने पर, उसके उत्तरोत्तर क्षण में कर्ता-कर्म-क्रियाका विभागक्षय को प्राप्त होता जाता है; इसलिए निष्क्रिय चिन्मात्रभाव को प्राप्त होता है। क्रियाविभागतया निष्क्रियं चिन्मानंभावमधिगतस्य जातस्य मणेरिवाकम्पप्रवृत्तनिर्मलालोकस्यावश्यमेव निराश्रतयामोहतमः प्रलीयते। यद्येवंलब्धोमयामोहवाहिनीविजयोपायः।।८०।। इसप्रकार मणि कीभाँति जिसका निर्मल प्रकाश अकम्परूप से प्रवर्तमान है- ऐसे उस चिन्मात्र भाव को प्राप्त जीव में मोहान्धकार निराश्रयता के कारण अवश्य ही प्रलय को प्राप्त होता है। यदि ऐसा है तो मैंने मोह की सेना को जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया है।" यह गाथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इसमें मोह के नाश का उपाय बताया गया है। इसकी यह तत्त्वप्रदीपिका टीका भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। आचार्य जयसेन इस गाथा का अर्थ करते हुए आगम और अध्यात्म – दोनों अपेक्षाओं को स्पष्ट करते हैं। वे लिखते हैं - “अब ‘चत्ता पापारंभं' इत्यादि सूत्र के द्वारा जो यह कहा गया है कि शुद्धोपयोग के अभाव में मोहादि का विनाश नहीं होता है, मोहादि के विनाश के अभाव में शुद्धात्मा का लाभ नहीं होता है; इसलिए ही यहाँ मोह के नाश के उपाय पर विचार किया जाता है। केवलज्ञानादि विशेष गुण और अस्तित्वादि सामान्य गुण, परमौदारिक शरीराकाररूप जो आत्मप्रदेशों का अवस्थान (आकार) वह व्यंजनपर्याय और अगुरुलघुगुण की षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप से प्रतिसमय होनेवाली अर्थपर्यायें - इन लक्षणवाले गुण-पर्यायों का आधारभूत अमूर्त असंख्यातप्रदेशीशुद्ध चैतन्य के अन्वयरूपद्रव्य है। इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय को अरहंत परमात्मा में जानकर निश्चयनय से आगम के सारभूत अध्यात्मभाषा की अपेक्षा स्वशुद्धात्मभावना के सम्मुखरूप सविकल्प स्वसंवेदन ज्ञान से उसीप्रकार आगमभाषा की अपेक्षाअधःप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक दर्शनमोह केक्षय में समर्थपरिणामविशेषके बल से अपने आपकोआत्मा में जोड़ता है। इसप्रकार निर्विकल्पस्वरूप प्राप्त होने पर जैसे अभेदनय से पर्यायस्थानीय मोती और गुणस्थानीय सफेदी हार ही है; उसीप्रकार अभेदनय से पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्याय भी आत्मा ही है। इसप्रकार परिणमित होता हुआ दर्शनमोहरूप अंधकार विनाश को प्राप्त होता है।"
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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