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________________ १३६ प्रवचनसार सहित समस्त द्रव्यों के प्रति राग और द्वेष सम्पूर्णतः छोड़ता है; वह जीव एकान्त से उपयोग विशुद्ध (शुद्धोपयोगी) होने से, जिसने परद्रव्य का अवलम्बन छोड़ दिया है; ऐसा वर्तता हुआ- लोहे घनघातस्थानीयं शारीरं दुःखं क्षपयति । ततो ममायमेवैकः शरणं शुद्धोपयोगः ।।७८।। के गोले में से लोहे के सार का अनुसरण न करनेवाली अग्नि के समान - प्रचण्ड घन के आघात समान शारीरिक दुख का क्षय करता है। इसलिए यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण देखो, यह शुभपरिणामाधिकार चल रहा है और आचार्यदेव कह रहे हैं कि मेरे तो एक शुद्धोपयोग की ही शरण है। लोग समझते हैं कि यह शुभपरिणामाधिकार है; अत: इसमें तो शुभभाव करने की प्रेरणा दी होगी, शुभभाव की महिमा बताई होगी, शुभभाव के ही गीत गाये होंगे; किन्तु यहाँ तो शुभभावों को अशुभभावों के समान ही हेय बताया जा रहा है, पुण्य को पाप के समान ही हेय बताया जा रहा है; यहाँ तक कि सांसारिक सुख को भी दुख बताया जा रहा है; दुख के समान नहीं, अपितु साक्षात् दुख ही कहा जा रहा है। आचार्यदेव ने मंगलाचरण के उपरान्त आरंभ से ही शुद्धोपयोग के गीत गाये हैं। शुद्धोपयोग और उसके फल के रूप में प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख को समझाने के लिए शुद्धोपयोग अधिकार के तत्काल बाद ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार लिखे। ___ जब यह प्रश्न खड़ा हुआ कि अकेला अतीन्द्रियसुख ही सुख थोड़े है, इन्द्रियसुख भी तो सुख है। इसीप्रकार अकेला शुद्धोपयोग ही तो उपयोग नहीं है, शुभोपयोग और अशुभोपयोग भी तो उपयोग हैं। उनका भी तो प्रतिपादन होना चाहिए। इसी प्रश्न के उत्तर में शुभपरिणामाधिकार लिखा गया है; जिसमें यह बताया गया है कि शुभपरिणाम के फल में पुण्यबंध होता है और पुण्योदय होने पर इन्द्रियसुख की प्राप्ति होती है, भोगसामग्री उपलब्ध होती है। भोगसामग्री के उपभोग का भाव पापभाव है और वह पापबंध का कारण है। इसप्रकार यह शुभभाव भी तो अशुभभाव के निमित्तों को ही जुटाता है। अन्ततोगत्वा अनेक आगम प्रमाणों, अनेक प्रबल युक्तियों और सशक्त उदाहरणों के माध्यम से यह समझाया गया है कि यह इन्द्रियसुख भी सुख नहीं, दुख ही है; इसकारण न
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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