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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन अथायमेव वीतरागसरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयहेयत्वं विवेचयति - संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं। जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।।६।। संपद्यते निर्वाणं देवासुरमनुजराजविभवैः। जीवस्य चरित्राद्दर्शनज्ञानप्रधानात् ।।६।। तात्पर्य यह है कि इन गाथाओं के माध्यम से ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा में ही अपनापन अनुभव करनेवाले आचार्य कुन्दकुन्ददेव पंचपरमेष्ठी को स्मरण करते हुए साम्यभाव को प्राप्त होते हैं, साम्यभाव को प्राप्त होने की प्रतिज्ञा करते हैं। विशेष बात यह है कि इन गाथाओं में वर्तमान तीर्थ के नायक होने से एकमात्र भगवान महावीर को नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार किया गया है; शेष परमेष्ठियों को यद्यपि सामूहिक रूप से ही याद किया गया है; तथापि ऐसा लिखकर कि सभी को सामूहिक रूप से और प्रत्येक को व्यक्तिगतरूप से नमस्कार करता हूँ, उनके प्रति होनेवाली उपेक्षा को कम करते हुए परोक्षरूप से यह भी व्यक्त कर दिया गया है कि सबका नामोल्लेखपूर्वक स्मरण संभव नहीं है। सदा विद्यमान बीस तीर्थंकरों की विद्यमानता को विशेष महत्त्व देते हुए यद्यपि उन्हें विशेषरूप से याद किया गया है; तथापि नामोल्लेख तो उनका भी असंभव ही था। __ इसतरह हम देखते हैं कि मंगलाचरण की इन गाथाओं में न तो अतिसंक्षेप कथन है और न अतिविस्तार; अपितु विवेकपूर्वक मध्यम मार्ग अपनाया गया है।।१-५।। ___ मंगलाचरण संबंधी पाँच गाथाओं में से पाँचवीं गाथा में विशुद्धदर्शन-ज्ञान प्रधान आश्रम को प्राप्त करके निर्वाण की प्राप्ति के लिए साम्यभाव को प्राप्त होने की बात कही है। उक्त दर्शनज्ञानप्रधान आश्रम या साम्यभाव सम्यक्चारित्र ही है। अत: अब इस छटवीं गाथा में उक्त चारित्र के फल का निरूपण करते हैं; क्योंकि जबतक हमें यह पता न चले कि जिस कार्य को करने के लिए हमें प्रेरित किया जा रहा है; उसके करने से हमें क्या लाभ होगा; तबतक उस कार्य में हमारी प्रवृत्ति रुचिपूर्वक नहीं होती। इसलिए इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि वीतरागचारित्र इष्ट फलवालाहोने से उपादेय है और सरागचारित्र अनिष्टफलवाला होने से हेय है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है (हरिगीत ) निर्वाण पावैं सुर-असुर-नरराज के वैभव सहित। यदि ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र सम्यक् प्राप्त हो||६||
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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