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________________ १३४ प्रवचनसार अरे भाई! पुण्य और पाप में अन्तर माननेवाला ककड़ी का चोर नहीं है, छोटा-मोटा दोषी नहीं है; अपितु सात तत्त्व संबंधी भूल करनेवाला बड़ा अपराधी है, मिथ्यात्वी है और मिथ्यात्व का फल तो अनंत संसार है ही। हिंसादि पाप करनेवाला नरक में जाता है, पशु-पक्षी होता है और अहिंसादि पुण्यभावों को करनेवाला मनुष्य होता, देव होता है; इसप्रकार हिंसादि पापभावों का फल नरकादि व पुण्यभावों का फल स्वर्गादि है; किन्तु मिथ्यात्वादि का फल निगोद है और सम्यक्त्वादि का फल मोक्ष है। पुण्य में उपादेयबुद्धि, सुखबुद्धि तत्त्वसंबंधी भूल होने से मिथ्यात्व का महा भयंकर पाप है; यही कारण है कि इसप्रकार की भूल करनेवाले तबतक संसार में परिभ्रमण करते हैं, जबतक कि वे अपनी इस भूल को सुधार नहीं लेते। अत: हम सबका भला इसी में है कि हम अपनी भूल सुधार कर इस महापाप से बचें। इसे छोटी-मोटी भूल समझ कर उपेक्षा न करें। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि जिसे नयों के माध्यम से वस्तुस्वरूप का सच्चा ज्ञान नहीं है और जिनवाणी में कथित व्यवहारवचनों का सहारा लेकर विषयसुख प्राप्त करानेवाले पुण्य को भला मानता हुआ, शुभभावों को धर्मरूप जानता हुआ अतिगृद्धता से विषयों में रत रहता है, उन्हें प्राप्त करानेवाले पुण्य परिणामों में धर्म मानकर उसी में संतुष्ट रहता है; ऐसा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव जबतक अपनी मिथ्यामान्यता को नहीं छोड़ता, निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप सच्चे धर्म को नहीं जानता; तबतक सांसारिक सुख-दुखरूप दुख को भोगता हुआ संसार में ही भटकता रहेगा। यदि यह आत्मा समय पर नहीं चेता तो यह काल अनंत भी हो सकता है। तात्पर्य यह है कि वह अनन्त कालतक अनन्त दुख उठाता रहेगा। अत: भला इसी में है कि हम पंचेन्द्रिय के विषय प्रदान करनेवाले पुण्य को पाप के समान ही बंध का कारण जानकर पाप के समान ही हेय माने, हेय जाने; और उससे विरत हों। धर्म तो एकमात्र शुद्धोपयोग है, शुद्धपरिणति है, वीतराग परिणति है, वीतरागभाव है; वही उपादेय है, वही धारण करनेयोग्य है। अधिक क्या कहें- इस जीव को शुद्धपरिणति और शुद्धोपयोगरूपवीतरागभाव ही एकमात्र शरण है।।७७|| विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि पुण्य-पापकर्म, पुण्य-पापभाव और उसके फल में प्राप्त होनेवाले लौकिक सुख-दुख एक समान ही हेय हैं, दुखरूप हैं, दुख के कारण हैं;
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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