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________________ १३२ प्रवचनसार हुआअहमिन्द्रपदादि सम्पदाओं के कारणभूत धर्मानुराग पर अत्यंत निर्भररूपसे अवलम्बित है; पदादिसंपदा निदानमिति निर्भरतरं धर्मानुरागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःखमेवानुभवति ।।७७।। कर्मोपाधि से विकृत चित्तवाले उसजीव ने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है; इसलिए वह जीव संसारपर्यन्त (जबतक संसार है, तबतक) शारीरिक दुख का ही अनुभव करता है।" _आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ "व्यवहारनय से द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप में भेद है, अन्तर है; अशुद्ध निश्चयनय से भावपुण्य और भावपाप और उनके फलस्वरूप होनेवाले सुख-दुख में भेद है, अन्तर है; किन्तु शुद्धनिश्चयनय से शुद्धात्मा से भिन्न होने के कारण इनमें भेद नहीं है, अन्तर नहीं है। ___ इसप्रकार शुद्धनिश्चयनय से पुण्य और पाप में जो व्यक्ति अभेद नहीं मानता है; वह देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, कामदेव आदि पदों के निमित्त से निदानबंधरूप से पुण्य को चाहता हुआ निर्मोह शुद्धात्मतत्त्व से विपरीत दर्शनमोह-चारित्रमोह से आच्छादित होता हुआ, सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी के समान पुण्य और पाप - दोनों से बंधा हुआ संसाररहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में भ्रमण करता है - यह अर्थ है।" समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन पुण्य-पापाधिकार की समाप्ति पर ऐसा लिखते हैं कि इसप्रकार यह पापाधिकार समाप्त हआ। फिर स्वयं प्रश्न उठा कर इस बात का स्पष्टीकरण करते हैं कि निश्चय नय से पाप के समान पुण्य भीस्वभाव से पतित करनेवालाहोने के कारण पापही है; इसकारण एक अपेक्षा से यह अधिकार पापाधिकार ही है। वैसे तो आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन - दोनों ने इस गाथा का अर्थ समान ही किया है; दोनों ही एक स्वर से यह स्वीकार कर रहे हैं कि जो अज्ञानी जीव 'पुण्य और पाप में अन्तर नहीं हैं' - इस बात को स्वीकार नहीं करता; वह संसारी प्राणी अनंतकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। फिर भी आचार्य जयसेन को ऐसा लगा कि यह गाथा विशेष स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखती है। यही कारण है कि उन्होंने उक्त तथ्य को निश्चय-व्यवहारनयों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है। 'वह अपार घोर संसार में परिभ्रमण करेगा' यह पद भी विशेष स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखता है। अपार घोर संसार का अर्थ अनन्तकाल तक भयंकर संसार में भ्रमण करना भी किया
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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