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________________ ११८ प्रवचनसार सौख्यं स्वभावसिद्धं नास्ति सुराणामपि सिद्धमुपदेशे। ते देहवेदनार्ता रमन्ते विषयेषु रम्येषु ।।७१ ।। इन्द्रियसुखभाजनेषु हि प्रधाना दिवौकसः । तेषामपि स्वाभाविकं न खलु सुखमस्ति, प्रत्युत तेषां स्वाभाविकं दुःखमेवावलोक्यते, यतस्ते पञ्चेन्द्रियात्मकशरीरपिशाचपीडया परवशा भृगुप्रपातस्थानीयन्मनोज्ञविषयानभिपतन्ति ।।७१॥ गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) उपदेश से है सिद्ध देवों के नहीं है स्वभावसुख । तनवेदना से दुखी वे रमणीक विषयों में रमे।।७१|| जिनेन्द्रदेव के उपदेश से यह सिद्ध ही है कि देवों के भी स्वभावसिद्ध सुख नहीं है; क्योंकि वे देव पंचेन्द्रियमय देह की वेदनासे पीड़ित होने से रमणीक विषयों में रमते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि वे स्वाभाविक सुखी होते, दुखी नहीं होते; तो रमणीक विषयों में रमण संभव नहीं था । रमणीक विषयों में रमण इस बात का प्रमाण है कि देव भी दु:खी ही हैं। उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इन्द्रियसुखभाजनों में देवगति के देव प्रधान हैं; वस्तुत: उनके भीस्वाभाविक सुख नहीं है; अपितु उनके स्वाभाविक दुख ही देखा जाता है; क्योंकि पंचेन्द्रियात्मक शरीररूपी पिशाच की पीड़ा से परवश होने से वे भृगुप्रपात के समान मनोज्ञ विषयों की ओर दौड़ते हैं।" भृगु माने पर्वत का निराधार उच्च शिखर और प्रपात माने गिरना । इसप्रकार भृगुप्रपात का अर्थ होता दुखों से घबड़ा कर आत्महत्या करने के लिए पर्वत के निराधार उच्च शिखर से गिरना। इसप्रकार देव भी पंचेन्द्रिय विषयों की अभिलाषा की पीड़ा सहन न कर पाने से भृगुप्रपात के समान इन्द्रिय विषयों की ओर दौड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि सुखी से दिखनेवाले देव भी वस्तुत: दुखी ही हैं। आचार्य जयसेन तात्पर्यवत्ति में उक्त गाथा के भाव को निम्नांकित प्रसिद्ध उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हैं - ___ एक व्यक्ति अतिविस्तीर्ण भयंकर वन में भ्रमित होकर अर्द्धविक्षिप्त हाथी के पीछे पड़ जाने से अंधे कुएँ में गिरते समय उसके किनारे पर स्थित वृक्ष की एक शाखा को पकड़ कर लटक जाता है। उक्त वृक्ष की जड़ों को दो चूहे काट रहे हैं। उस वृक्ष पर एक मधुमक्खियों का छत्ता
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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