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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार १११ इति आनन्दप्रपञ्चः। - इसप्रकार अब आनन्द का विस्तार से विवेचन करनेवाला सुखाधिकार समाप्त होता यहाँ ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि गाथा में तो स्पष्टरूप से यह लिखा है कि जिसप्रकार सूर्य स्वभाव से तेज, उष्ण और देव है; उसीप्रकार सिद्ध भगवान भी स्वभाव से ज्ञान, सुख व देव हैं; जबकि तत्त्वप्रदीपिका टीका में सिद्ध भगवान के स्थान पर भगवान आत्मा शब्द का उपयोग किया गया है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि यहाँ सिद्धपर्याय अपेक्षित है या त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा अपेक्षित है? आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में सिद्ध भगवान ही अर्थ करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी परमातम शब्द का प्रयोग करते हैं; जो सिद्ध भगवान की ओर ही इंगित करता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी भी इस प्रकरण पर व्याख्यान करते हुए सिद्ध भगवान का ही स्मरण करते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भी ज्ञान, सुख व देव के लिए जिन विशेषणों का उपयोग किया गया है; उनमें सिद्ध भगवान ही प्रतिबिम्बित होते हैं। अत: यही लगता है कि आचार्य अमृतचन्द्र को भी यहाँ सिद्ध भगवान ही अभीष्ट हैं; तथापि उन्होंने अध्यात्म के जोर में भगवान आत्मा शब्द का प्रयोग किया है। इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जिसप्रकार बिल्ली को तिमिरनाशक दृष्टि प्राप्त होने से अंधकार में देखने के लिए दीपक की आवश्यकता नहीं है; उसीप्रकार सुखस्वभावी भगवान आत्मा को सुख प्राप्त करने के लिए पंचेन्द्रियों के विषयों की आवश्यकता नहीं। जिसका स्वभाव ही ज्ञान और आनन्द हो, उसे ज्ञान और आनन्द प्राप्त करने के लिए पर के सहयोग की क्या आवश्यकता है ? जिसप्रकार स्वभाव से उष्ण तेजवंत सूर्य को उष्ण व तेजवंत होने के लिए अग्नि की आवश्यकता नहीं है; उसीप्रकार स्वभाव से ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा को या सिद्ध भगवान को ज्ञानी और सुखी होने के लिए पर की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है।।६७-६८|| यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका में सुखाधिकार यहीं समाप्त हो गया है; तथापि आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के उपरान्त भी दो गाथायें प्राप्त होती हैं; जो तत्त्वप्रदीपिका में नहीं हैं। उक्त दोनों गाथाओं में क्रमश: अरिहंत और सिद्ध भगवान की स्तुति की गई है। अत: यह
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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