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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार १०५ उक्त गाथाओं और उसकी टीका में यह बात सिद्ध की गई है कि पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले विषय-भोगों में रंचमात्र भी सुख नहीं है; अपितु वे दुखरूपही हैं। गाथा में तो यहाँ तक लिखा है कि अपार भोग-सामग्री से सम्पन्न चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्र भी दुखी हैं; क्योंकि वे अपने दुखों को दूर करने के लिए रमणीक विषयों में रमण करते हैं। यदि वे दुखी नहीं होते तो उनकी विषयों में प्रवृत्ति नहीं होती। यहाँ पाँच इन्द्रियों संबंधी पाँच उदाहरण देकर यह बताया गया है कि जब एक-एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर प्राणी इतने दुख उठाते हैं तो फिर जो पाँचों इन्द्रियों के आधीन हैं; उनके दुखों की तो बात ही क्या करना ? हाथी स्पर्शन इन्द्रिय के वश होकर कुट्टनी हथिनी के पीछे भागता हुआ गड्ढे में गिरकर जीवनभर को गुलाम बन जाता है, मछली रसना इन्द्रिय के वशीभूत होकर अपना कंठ छिदाकर मरण को प्राप्त होती है, गंध का लोभी भौंरा कमल में बंद होकर जान गंवा देता है, रूप के लोभी पतंगे दीपक की ज्योति पर जल मरते हैं और संगीत के लोभी हिरण शिकारी द्वारा मार दिये जाते हैं। इसप्रकार एक-एक इन्द्रियों के आधीन प्राणियों की दुर्दशा देखकर यह विचार करना चाहिए कि पाँचों इन्द्रियों के गुलामों को सुखी कैसे कहा जा सकता है ? दूसरे उदाहरणों से भी यह सिद्ध किया गया है कि वे दुखी ही हैं। ___ कहा जाता है कि बकरे की पेशाब कान में डालने से कान का दर्द ठीक हो जाता है। यह तो आप जानते ही हैं कि जो वस्तु कान में डाली जाती है, वह गले के माध्यम से मुँह में भी आ जाती है। ऐसा कौन व्यक्ति होगा कि जो महानिंद्य मल-मूत्र को अपने कान में डालेगा; किन्तु जब कान में भयंकर दर्द होता है तो अशुद्धता का विचार किये बिना लोग ऐसा भी करते देखे जाते हैं। जिसप्रकार बकरे की पेशाब को कान में डलवाना इस बात का प्रतीक है कि उसे भयंकर पीड़ा हो रही है; उसीप्रकार पंचेन्द्रिय विषयों की गंदी से गंदी क्रियायें इस बात की प्रमाण हैं कि पंचेन्द्रिय विषयों को भोगनेवाले महादुखी हैं। ये पंचेन्द्रियों के भोग दुखी होने की निशानी हैं, सुखी होने की नहीं। इसीप्रकार जैसे शीतज्वरवालों को पसीना लाने का उपचार, दाहज्वरवालों का कांजी से ताप उतारने का उपचार और दुखती आँख में वटाचूर्ण आँजने का उपचार कराते हुए व्यक्ति सुखी नहीं, दुखी है। ये उपचार उनके दुखी होने की निशानी है। ठीक वैसे ही पंचेन्द्रिय विषयों की रमणता इन्द्रादिक के दुखी होने के ही प्रमाण हैं, सुखी होने के नहीं।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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