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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार अथ परोक्षज्ञानिनामपारमार्थिकमिन्द्रियसुखं विचारयति । अथ यावदिन्द्रियाणां तावत्स्वभावादेव दुःखमेवं वितर्कयति - मणु आसुरामरिंदा अहिदा इन्दिएहिं सहजेहिं । असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ॥ ६३ ॥ | जेसिं विसएसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं । । ६४ ।। मनुजासुरामरेन्द्राः अभिद्रुता इन्द्रियैः सहजैः । असहमानास्तदुःखं रमन्ते विषयेषु रम्येषु ।। ६३ ।। येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम् । यदि तन्न हि स्वभावो व्यापारो नास्ति विषयार्थम् ।। ६४ ।। अमीषां प्राणिनां हि प्रत्यक्षज्ञानाभावात्परोक्षज्ञानमुपसर्पतां तत्सामग्रीभूतेषु स्वरसत एवेन्द्रियेषु मैत्री प्रवर्तते । अथ तेषां तेषु मैत्रीमुपगतानामुदीर्णमहामोहकालानलकवलितानां गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) नरपती सुरपति असुरपति इन्द्रियविषयदवदाह से । पीड़ित रहें सह सके ना रमणीक विषयों में रमें ||६३ ॥ १०३ जो विषयसुख में लीन हैं वे हैं स्वभाविक दुःखीजन । दुःख के बिना विषविषय में व्यापार हो सकता नहीं ॥ ६४ ॥ चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्र सहज इन्द्रियों से पीड़ित रहते हुए उन दुखों को सहन न कर पाने से रम्य विषयों में रमण करते हैं। जिन्हें विषयों में रति है; उन्हें दुख स्वाभाविक जानो; क्योंकि यदि वे दुखी न हों तो उनका विषयों में व्यापार न हो । इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचंद्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"प्रत्यक्षज्ञान के अभाव में परोक्षज्ञान का आश्रय लेनेवाले इन प्राणियों को परोक्षज्ञान की सामग्रीरूप इन्द्रियों के प्रति निजरस से ही मैत्री देखी जाती है । इन्द्रियों के प्रति मैत्री को प्राप्त उन प्राणियों को उदयप्राप्त महामोहरूपी कालाग्नि ने ग्रास बना लिया है; इसलिए उन्हें तप्त लोहे के गोले की भाँति अत्यन्त तृष्णा उत्पन्न हुई है; उस दुख
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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