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________________ प्रवचनसार खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि, न नाम केवलं परिणाममात्रम् । घातिकर्माणि हि महामोहोत्पादकत्वादुन्मत्तकवदतस्मिंस्तबुद्धिमाधाय परिच्छेद्यमर्थं प्रत्यात्मानं यतः परिणामयन्ति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य श्राम्यतः खेदनिदानतां प्रतिपद्यन्ते । तदभावात्कुतो हि नाम केवले खेदस्योद्भेदः। यतश्च त्रिसमयावच्छिन्नसकलपदार्थपरिच्छेद्याकारवैश्वरूप्यप्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभित्तिस्थानीयमनन्तस्वरूपं स्वयमेव परिणमत्केवलमेव परिणामः, ततः कुतोऽन्यः परिणामो यद्द्वारेण खेदस्यात्मलाभः। यतश्च समस्तस्वभावप्रतिघाताभावात्समुल्लसितनिरकुशानन्तशक्तितया सकलं त्रैकालिकं लोकालोकाकारमभिव्याप्य कूटस्थत्वेनात्यन्तनि:प्रकम्पं व्यवस्थितत्वादनाकुलतां सौख्यलक्षणभूतामात्मनोऽव्यतिरिक्तां बिभ्राणं केवलमेव सौख्यम्, ततः कुतः केवलसुखयोर्व्यतिरेकः । अतः सर्वथा केवलं सुखमैकान्तिकमनुमोदनीयम् ।।६०।। प्रथम तो खेद के आयतन घातिकर्म हैं, केवल परिणाम नहीं। घातिकर्म महामोह के उत्पादक होने से धतूरे की भाँति अतत् में तत्बुद्धि धारण कराके आत्मा को ज्ञेयपदार्थों के प्रति परिणमन कराते हैं, ज्ञेयार्थपरिणमन कराते हैं; इसकारण वे घातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित हो-होकर थकनेवाले आत्मा के लिए खेद के कारण होते हैं। घातिकर्मों का अभाव होने से केवलज्ञान में खेद कहाँ से होगा? दसरे चित्रित दीवार की भाँति त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों के ज्ञेयाकाररूप अनन्तस्वरूप स्वयमेव परिणमित होने से केवलज्ञान स्वयं ही परिणाम है; इसकारण अन्य परिणाम कहाँ है कि जिससे खेद की उत्पत्ति हो? तीसरे वह केवलज्ञान समस्त स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण निरंकुश अनंतशक्ति के उल्लसित होने से समस्त त्रैकालिक लोकालोक के आकार में व्याप्त होकर कूटस्थतया अत्यंत निष्कंप है; इसकारण आत्मासे अभिन्न सुखलक्षणभूत अनाकुलताकोधारण करता हुआ केवलज्ञान स्वयं ही सुख है; इसलिए केवलज्ञान और सुख का व्यतिरेक कहाँ है ? इसलिए यह सर्वथा अनुमोदन करनेयोग्य है कि केवलज्ञान एकान्तिक सुख है।" केवलज्ञानी सुखी कैसे हो सकते हैं; क्योंकि उन्हें तो अनंत पदार्थों को जानने का काम करना है ? केवलज्ञान भी परिणाम है; अत: वह एक समय बाद स्वयं नाश को प्राप्त होगा। अगले समय होनेवाले केवलज्ञान को फिर सभी पदार्थों को जानना होगा। इसप्रकार प्रतिसमय
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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