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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार अथैतदेव प्रत्यक्षं पारमार्थिकसौख्यत्वेनोपक्षिपति - जादं सयं समंतं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणिदं ।।५९।। जातं स्वयं समंतं ज्ञानमनन्तार्थविस्तृतं विमलम् । रहितं त्ववग्रहादिभिः सुखमिति ऐकान्तिकं भणितम् ।।५९।। स्वयं जातत्वात्, समन्तत्वात्, अनन्तार्थविस्तृतत्वात्, विमलत्वात्, अवग्रहादिरहितत्वाच्च प्रत्यक्षं ज्ञानं सुखमैकान्तिकमिति निश्चीयते, अनाकुलत्वैकलक्षणत्वात्सौख्यस्य । यतो हि परतोजायमानं पराधीनतया, असमंतमितरद्वारावरणेन, कतिपयार्थप्रवृत्तमितरार्थबुभुत्सया, समलमसम्यगवबोधेन, अवग्रहादिसहितं क्रमकृतार्थग्रहणखेदेन परोक्षंज्ञानमत्यन्तमाकुलं भवति । ततो न तत् परमार्थत: सौख्यम्। विगत गाथा में परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान का स्वरूप बताया गया है और इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि परमार्थ सुख की प्राप्ति तो प्रत्यक्षज्ञान वाले को ही होती है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत) स्वयं से सर्वांग से सर्वार्थग्राही मलरहित । अवग्रहादि विरहित ज्ञान ही सुख कहा जिनवरदेव ने।।५९|| सर्वात्मप्रदेशों से, अपने आप ही उत्पन्न, अनंत पदार्थों में विस्तृत, विमल और अवग्रहादि से रहित ज्ञान एकान्ततः सुख है - ऐसा कहा गया है। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "चारों ओर से, स्वयं उत्पन्न होने से, अनंत पदार्थों में विस्तृत होने से, विमल होने से, अवग्रहादि से रहित होने से प्रत्यक्षज्ञान एकान्तिक सुख है - यह निश्चित होता है; क्योंकि एकमात्र अनाकुलताही सुख का लक्षण है। पर से उत्पन्न होने से पराधीनता के कारण, असमंत होने से अन्य द्वारों से आवरित होने के कारण, मात्र कुछ पदार्थों को जानने से अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण, समल होने से असम्यक् अवबोध के कारण और अवग्रहादि सहित होने से क्रमश: होनेवाले पदार्थ ग्रहण के खेद के कारण परोक्षज्ञान अत्यन्त आकुल है; इसलिए वह परमार्थ सुख नहीं है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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