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________________ प्रवचनसार-गाथा १०० प्रवचनसार-गाथा १०० अब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का परस्पर-अविनाभाव दृढ़ करते ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ।। ण भवो भङ्गविहीनो भङ्गो वा नास्ति संभवविहीनो। उत्पादोऽपि च भंगो न बिना ध्रौव्येणार्थेन ।। अन्वयार्थ :- (भवः) उत्पाद (भंग विहीनः) भंग रहित (न) नहीं होता (वा) और (भंग) भंग (संभव विहीनः) बिना उत्पाद के (नास्ति) नहीं होता, (उत्पादः) उत्पाद (अपि च) तथा (भंगः) भंग (ध्रौव्येण अर्थेन बिना) ध्रौव्य पदार्थ के बिना (न) नहीं होते। ___टीका :- वास्तव में सर्ग संहार के बिना नहीं होता और संहार सर्ग के बिना नहीं होता, सृष्टि और संहार स्थिति (ध्रौव्य) के बिना नहीं होते, स्थिति सर्ग और संहार के बिना नहीं होती। ___ जो सर्ग है वही संहार है, जो संहार है वही सर्ग है, जो सर्ग और संहार है वही स्थिति है, जो स्थिति है वही सर्ग और संहार है। उसका खुलासा इसप्रकार है - जो कुम्भ का सर्ग है वही मृत्तिकापिण्ड का संहार है, क्योंकि भाव का भावान्तर के अभावस्वभाव से अवभासन है। (अर्थात् भाव अन्यभाव के अभावरूप स्वभाव से प्रकाशित है - दिखाई देता है।) और जो मृत्तिकापिण्ड का संहार है वही कुम्भ का सर्ग है, क्योंकि अभाव का भावान्तर के भावस्वभाव के अवभासन है (अर्थात् नाश अन्यभाव के उत्पादरूप स्वभाव के प्रकाशित है।) और जो कुम्भ का सर्ग और जो कुम्भ का सर्ग और पिण्ड का संहार है वही मृत्तिका की स्थिति है, क्योंकि व्यतिरेक, अन्वय का अतिक्रमण (उल्लंघन) नहीं करने और जो मृत्तिका की स्थिति है वही कुम्भ का सर्ग और जो मृत्तिका की स्थिति है वही कुम्भ का सर्ग और पिण्ड का संहार है, क्योंकि व्यतिरेकों के द्वारा ही अन्य प्रकाशित होता है। और यदि ऐसा न माना जाय तो ऐसा सिद्ध होगा कि "सर्ग अन्य है, संहार अन्य है, स्थिति अन्य है।" (अर्थात् तीन पृथक् है ऐसा मानने का प्रसंग आ जायेगा।) ऐसा होने पर (क्या दोष आता है, सो समझाते हैं):__ केवल सर्ग-शोधक कुम्भ की (व्यय और ध्रौव्य से भिन्न मात्र उत्पाद करने वाले कुम्भ की) उत्पादन कारण का अभाव होने से उत्पत्ति ही नहीं होगी अथवा असत् का ही उत्पाद होगा। और (१) यदि कुम्भ की उत्पत्ति न होगी तो समस्त ही भावों की उत्पत्ति नहीं होगी। (अर्थात् जैसे कुम्भ की उत्पत्ति नहीं होगी उसी प्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भी भाव का उत्पाद ही नहीं होगा - यह दोष उत्पन्न होगा (अर्थात् जैसे कुम्भ की उत्पत्ति नहीं होगी उसी प्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भी भाव का उत्पाद ही नहीं होगा - यह दोष आयेगा । अथवा (२) यदि असत् का उत्पाद हो तो व्योम-पुष्प इत्यादि का भी उत्पाद होगा (अर्थात् शून्य में से भी पदार्थ उत्पन्न होने लगेंगे - यह दोष आयेगा) और केवल व्ययारम्भक (उत्पाद और ध्रौव्य से रहित केवल व्यय करने की उद्यत मृत्तिकापिण्ड का) संहारकारण का अभाव होने से संहार ही नहीं होगा, अथवा तो सत् का ही उच्छेद होगा। वहाँ, (१) यदि मृत्तिकापिण्ड का व्यय न होगा तो समस्त ही भावों का संहार ही न होगा, (अर्थात् जैसे मृत्तिकापिण्ड का संहार नहीं होगा उसीप्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भाव का संहार नहीं होगा, यह दोष आयेगा) अथवा (२) यदि सत् का उच्छेद होगा तो चैतन्य इत्यादि का भी उच्छेद हो जायेगा, (अर्थात् समस्त द्रव्यों का सम्पूर्ण विनाश हो जायेगा - यह दोष आयेगा) और केवल स्थिति प्राप्त करने को जानेवाली मृत्तिका की, व्यतिरेकों सहित स्थिति का - अन्वय का - उसके अभाव होने से, स्थिति ही नहीं
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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