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________________ २६ पदार्थ विज्ञान यदि परिणाम की भाँति द्रव्य भी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्त न हो तो वह परिणामों की परम्परा में वर्त ही नहीं सकता। जो द्रव्य है सो उत्पाद व्ययध्रौव्यरूप समस्त परिणामों की परम्परा में वर्तता है, इससे उसके भी उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य है । 'परिणामों की पद्धति' कही है अर्थात् जिसप्रकार सांकल की कड़ियाँ आगे-पीछे नहीं होती, उसीप्रकार परिणामों का प्रवाहक्रम नहीं बदलता। जिस समय द्रव्य का जो परिणाम प्रवाहक्रम में हो उस समय उस द्रव्य का वही परिणाम होता है, दूसरा परिणाम नहीं होता। देखो, यह वस्तु के सत्-स्वभाव का वर्णन है। वस्तु का सत्स्वभाव है, सत् उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य-युक्त परिणाम है और उसे भगवान द्रव्य का लक्षण कहते हैं 'सत् द्रव्यलक्षण' । तेरा स्वभाव जानने का है। जैसा सत् है वैसा तू जान । सत् का उल्टा सीधा करने की बुद्धि करेगा तो तेरे ज्ञान में मिथ्यात्व होगा। वस्तुएँ सत् हैं और मैं उनका ज्ञाता हूँ ऐसी श्रद्धा होने के पश्चात् अस्थिरता का विकल्प उठता है, किन्तु उसमें मिथ्यात्व का जोर नहीं आता; इसलिये ऐसे ज्ञान और ज्ञेय की श्रद्धा के बल से उस अस्थिरता का विकल्प भी टूटकर वीतरागता और केवलज्ञान होंगे ही। सर्वज्ञदेव ने केवलज्ञान में वस्तु का स्वभाव जैसा है वैसा पूर्ण जाना और वैसा ही वाणी में आ गया। जैसा वस्तु का स्वभाव है, वैसा जानकर मानें तो ज्ञान और श्रद्धा सम्यक् हो, वस्तु के स्वभाव को यथावत् न जाने तथा अन्य रीति से माने तो सम्यक्ज्ञान और सम्यक् श्रद्धान नहीं होता । और उसके बिना व्रत-तपादि सच्चे नहीं होते । देखो, अभी तक यह कहा गया है कि प्रत्येक चेतन और जड़पदार्थ स्वयं सत् है, उसमें एक-एक समय में परिणाम होता है, वह परिणाम उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्त है। मूल वस्तु त्रिकाल है, वह वस्तु असंयोगी स्वयंसिद्ध है, वह किसी से निर्मित नहीं है और न कभी उसका नाश होता 18 २७ प्रवचनसार-गाथा ९९ है, जब देखो तब वह प्रतिसमय सत्रूप से वर्त रही है। प्रत्येक समय के परिणाम में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य होता है। उसमें वस्तु वर्त रही है। प्रत्येक द्रव्य में तीनकाल के जितने समय हैं उतने ही परिणाम हैं। जैसे - एक सुवर्णपिण्ड के सौ वर्ष लिये जायें तो उन सौ वर्षों हुई स्वर्णपिण्ड की कड़ा, कुंडल, हार आदि समस्त अवस्थाओं का एक पिण्ड सोना है, उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य तीनकाल के समस्त परिणामों का पिण्ड है। वे परिणाम क्रमशः एक के बाद एक होते हैं। तीनकाल के समस्त परिणामों का प्रवाह द्रव्य का प्रवाहक्रम है और उस प्रवाहक्रम का एक समय का अंश परिणाम है। तीनकाल के जितने समय हैं उतने ही प्रत्येक द्रव्य के परिणाम हैं। उस प्रत्येक परिणाम में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सिद्ध किये हैं। अपने-अपने निश्चित अवसर में प्रत्येक परिणाम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है। किसी अन्य से किसी अन्य के परिणाम का उत्पाद नहीं होता तथा कोई परिणाम आगे-पीछे नहीं होते । इस निर्णय में सर्वज्ञता का निर्णय और ज्ञायक द्रव्य की दृष्टि हो जाती है। आत्मा में जो वर्तमान ज्ञान अवस्था है, उस अवस्था में ज्ञानगुण वर्त रहा है, दूसरी अवस्था होगी तब उसमें वर्तमान वर्तेगा और तीसरी अवस्था के समय भी वर्तमान वर्तेगा । इसप्रकार दूसरी-तीसरी-चौथी सभी अवस्थाओं के प्रवाह का पिण्ड ज्ञानगुण है। ऐसे अनंतगुणों का पिण्ड द्रव्य है । द्रव्य के प्रतिसमय जो परिणाम होते हैं, वे परिणाम वर्तमान अपेक्षा से उत्पादरूप हैं, पूर्व के अभाव की अपेक्षा से व्ययरूप हैं और अखण्ड प्रवाह में वर्तनेवाले अंशरूप से ध्रौव्य हैं। ऐसा उत्पाद-व्ययध्रौव्य वाला जो परिणाम है, वह प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है और ऐसे स्वभाव में द्रव्य नित्य प्रवर्तमान है इसलिये द्रव्य स्वयं भी उत्पाद-व्ययध्रौव्यस्वभाव वाला है ऐसा समझना । प्रत्येक वस्तु पलटती हुई नित्य है। यदि वस्तु अकेली 'नित्य' ही हो
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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