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________________ २० पदार्थ विज्ञान बदलने की बुद्धि नहीं है और ऐसा क्यों' - ऐसा विषय भाव नहीं है, इसलिये श्रद्धा और चारित्र - दोनों का मेल बैठ जाता है। त्रिकाली द्रव्य के प्रत्येक समय के परिणाम सत् हैं - ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है। द्रव्य सत् है और पर्याय भी सत् है। यह 'सत्' जिसके चित्त में नहीं बैठा और 'मैं पर्यायों में फेरफार कर सकता हूँ - ऐसा मानता है उसे वस्तु के स्वभाव की, सर्वज्ञदेव की, गुरु की या शास्त्र की बात नहीं जमी है अत: हम कह सकते हैं कि वास्तव में उसने देव-शास्त्र-गुरु में से किसी को नहीं माना है। त्रिकाली वस्तु का वर्तमान कब नहीं होता? सदैव होता है। वस्तु का कोई भी वर्तमान अंश लो, वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है। वस्तु को जब देखो तब वह वर्तमान में वर्त रही है। इस वर्तमान को यहाँ स्वयंसिद्ध सत् सिद्ध करते हैं। जिसप्रकार त्रिकाली सत् पलटकर चेतन से जड़ नहीं हो जाता; उसीप्रकार उसका प्रत्येक वर्तमान अंश सत् है, वह अंश भी पलटकर आगे-पीछे नहीं होता। जिसने ऐसे वस्तु-स्वभाव को जाना, उसको जो अपने ज्ञायक-स्वरूप की प्रतीति हुई, वही धर्म है। तीनों काल के समय में तीनों काल के परिणाम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हैं। वर्तमान एक समय का परिणाम एक समय पहले नहीं था, नया उत्पन्न हुआ है, इसलिये वह उत्पाद-रूप है और उस परिणाम के समय पूर्व के परिणाम का व्यय है, पूर्व-परिणाम का व्यय होकर वह परिणाम उत्पन्न हुआ है इसलिये पूर्व-परिणाम की अपेक्षा वही परिणाम व्ययरूप है, और तीनों काल के परिणाम के अखण्ड-प्रवाह की अपेक्षा से वह परिणाम उत्पन्न भी नहीं हुआ है और विनाशरूप भी नहीं है, ध्रौव्य है। इसप्रकार अनादि-अनंत प्रवाह में जब देखो तब प्रत्येक परिणाम उत्पाद-व्ययध्रौव्य स्वभावरूप है। किसी भी वस्तु की पर्याय में फेरफार करने की उमंग पर्यायबुद्धि रूप मिथ्यात्व है। उसे ज्ञान-स्वभाव की प्रतीति नहीं है और ज्ञेयों के उत्पाद प्रवचनसार-गाथा ९९ व्यय-ध्रौव्य स्वभाव की भी खबर नहीं है। जो वस्तु 'सत्' है, उसको जानने के अतिरिक्त उसमें कोई कुछ भी फेरफार नहीं कर सकता? यदि कोई सत् में फेरफार करना मानेगा तो उसके मानने से सत् तो नहीं बदलेगा, किन्तु उसका ज्ञान ही असत् हो जायगा । जिसप्रकार वस्तु सत् है, उसीप्रकार उसे भगवान ने केवलज्ञान में जाना है, वही वाणी द्वारा कहा है। जैसा सत् था, वैसा मात्र देखा, जाना और कहा है। वाणी भी जड़ है, अतः उसे भी भगवान नहीं बोलते। भगवान का आत्मा तो अपने केवलज्ञान-परिणाम में वर्त रहा है और उनकी वाणी की पर्याय परमाणुओं के परिणमन-प्रवाह में वर्त रही है तथा समस्त पदार्थ अपने सत् में वर्त रहे हैं। ज्ञायकमूर्ति आत्मा तो केवल जानने का कार्य करता है। बस इसीप्रकार की प्रतीति और परिणति का नाम मोक्षमार्ग है। ___ भगवान सर्व जगत् के मात्र ज्ञाता-दृष्टा हैं, किसी में राग-द्वेष या फेरफार करने वाले नहीं हैं। भगवान की भाँति मेरे आत्मा का स्वभाव भी मात्र जानने का है - इसप्रकार सब अपने ज्ञाता-स्वभाव की श्रद्धा करें और पदार्थों में फेरफार करने की बुद्धि छोड़ें। जिसने अपने ज्ञान-स्वभाव को माना, उसी ने अरिहंतदेव को माना, उसी ने आत्मा को माना, उसी ने गुरु को तथा शास्त्र को माना, उसी ने नवपदार्थों को माना, उसी ने छहद्रव्यों को तथा उनके वर्तमान अंश को माना, बस इसी का नाम सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान है। 'जानना' आत्मा का स्वभाव है। जानना ही आत्मा का पुरुषार्थ है। जानना ही आत्मा का धर्म है। उसी में मोक्षमार्ग और वीतरागता है। अनंत सिद्ध भगवंत भी प्रतिसमय पूर्ण जानने का ही कार्य कर रहे हैं। ज्ञान में स्व-पर दोनों ज्ञेय हैं। 'ज्ञान ज्ञाता है' - ऐसा जाना वहाँ ज्ञान भी स्वज्ञेय हुआ। ज्ञान को रागादि का कर्त्ता माने या बदलने वाला माने तो उसने ज्ञान के स्वभाव को नहीं जाना है, स्वयं अपने को स्वज्ञेय नहीं बनाया; इसलिये उसका ज्ञान मिथ्या है। वस्तु के समस्त परिणाम अपने 15
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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