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________________ पदार्थ विज्ञान ज्ञान-गुण का स्व-पर-प्रकाशक कार्य है। इसकी प्रतीति ही मुक्ति का कारण है। प्रत्येक द्रव्य त्रिकाल परिणमित होता रहता है। उसके त्रिकाल के प्रवाह में स्थित समस्त परिणाम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हैं। अपने स्वकाल में वे सब परिणाम अपनी अपेक्षा से उत्पाद-रूप हैं, पूर्व के परिणाम की अपेक्षा से व्ययरूप हैं और परस्पर सम्बन्ध वाले अखण्ड प्रवाह की अपेक्षा से वे ध्रौव्य हैं। द्रव्य के समस्त परिणाम अपने-अपने काल में सत् हैं। वे परिणाम स्वयं अपनी अपेक्षा से वे असत् (व्ययरूप) हैं और प्रथम-पश्चात् के भेद किये बिना अखण्ड प्रवाह को देखो तो समस्त परिणाम ध्रौव्य हैं। द्रव्य त्रिकाल होने पर भी जब देखो तब वह वर्तमान परिणाम में वर्त रहा है, कहीं भूत में या भविष्य में नहीं वर्तता । द्रव्य के तीनों काल के जो वर्तमान परिणाम हैं वे अपने से पहले के परिणाम के अभाव स्वरूप से उत्पाद-रूप हैं तथा वे ही अखण्डप्रवाह-रूप से ध्रौव्यरूप हैं। देखो, इसमें यह बात आ गई कि पूर्व के परिणाम के अभाव-स्वरूप वर्तमान परिणाम है, इसलिए पूर्व के संस्कार वर्तमान में नहीं आते और न पूर्व का विकार वर्तमान में आता है। पहले विकार किया था इसलिए इस समय विकार हो रहा है - ऐसा नहीं है। वर्तमान परिणाम स्वतंत्रतया द्रव्य के आश्रय से होते हैं। यह निर्णय होने से ज्ञान और श्रद्धा द्रव्यस्वभावोन्मुख हो जाते हैं। जिसप्रकार त्रिकाली जड़ द्रव्य बदलकर चेतन या चेतन द्रव्य बदलकर जड़ नहीं होता, उसीप्रकार उसका वर्तमान प्रत्येक अंश भी बदलकर दूसरे अंशरूप नहीं होता। जिस-जिस समय का जो अंश है उस-उस रूप ही वह सत् रहता है। जिसप्रकार भगवान सर्वज्ञरूप से ज्ञाता हैं; उसीप्रकार वस्तु-स्वरूप की यथार्थ प्रतीति करने वाला स्वयं भी प्रतीति में ज्ञाता हो जाता है। प्रवचनसार-गाथा ९९ पर में फेर-बदल करने की बात तो दूर ही रही, यहाँ तो यह कह रहे हैं कि द्रव्य स्वयं अपने अंश को भी आगे-पीछे नहीं कर सकता, पहले का अंश पीछे नहीं होता, पीछे का अंश पहले नहीं होता - ऐसा निर्णय करने वाले की अंशबुद्धि दूर होकर अंशी की दृष्टि होने से सम्यक्त्व-परिणाम का उत्पाद और मिथ्यात्व-परिणाम का व्यय हो जाता है। आत्मा का ज्ञानगुण आत्मा के आधार से ही टिका है। वह ज्ञाता स्वभाववाला है और उसके तीनकाल के परिणाम अपने-अपने अवसर के अनुसार द्रव्य में से होते रहते हैं। आत्मा अपने वर्तमान में प्रवर्तमान अंश को कम-अधिक या आगे-पीछे कर सके - ऐसा उसका स्वभाव ही नहीं है। पर के परिणाम में भी वह फेरफार नहीं कर सकता है। स्व-पर समस्त ज्ञेयों को यथावत् जानने का ही आत्मा का स्वभाव है। ऐसे ज्ञाता स्वभाव की प्रतीति में ही आत्मा को सम्यक्त्व की प्राप्ति संभव है। प्रश्न :- मिथ्यात्व-परिणाम को बदलकर सम्यक्त्वरूप करूँ - ऐसा भाव तो सभी को होते देखा जाता है? उत्तर :- देखो, ज्ञाता-स्वभाव की प्रतीति करने से सम्यग्दर्शन होता है, उसमें मिथ्यात्व दूर हो ही जाता है। सम्यक्त्व-परिणाम का उत्पाद हुआ उससमय मिथ्यात्व-परिणाम वर्तमान नहीं होते, इसलिए उन्हें बदलना भी कहाँ रहा? मिथ्यात्व को हटाकर सम्यक्त्व करूँ- ऐसे लक्ष से सम्यक्त्व नहीं होता; किन्तु द्रव्य-सन्मुख दृष्टि होने से सम्यक्त्व का उत्पाद होता है, उसमें पूर्व के मिथ्यात्व-परिणाम का अभाव हो ही जाता है, इसलिये उस परिणाम को भी बदलना नहीं रहता। मिथ्यात्व दूर होकर जो सम्यक्त्व पर्याय प्रगट होती है, उसे भी आत्मा जानता है; किन्तु परिणाम के किसी भी क्रम को वह आगे-पीछे नहीं करता। अहो! जिस-जिस पदार्थ का जो वर्तमान अंश है, वह कभी नहीं बदलता - इसमें अकेला वीतरागी विज्ञान ही आता है। पर्याय को
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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