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________________ १०० नींव का पत्थर वस्तुत: पर में अकर्तृत्व की यथार्थ श्रद्धा रखने वाले का तो जीवन ही बदल जाता है। वह अन्दर ही अन्दर कितना सुखी, शान्त, निरभिमानी, निर्लोभी और निराकुल हो जाता है, अज्ञानी तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। समयसार के अकर्तावाद का तात्पर्य यह है कि - जो प्राणी अपने को अनादि से परद्रव्य का कर्ता मानकर राग-द्वेष-मोह भाव से कर्मबन्धन में पड़कर संसार में परिभ्रमण कर रहा है, वह अपनी इस मूल भूल को सुधारे और अकर्तृत्व की श्रद्धा के बल से राग-द्वेष का अभाव कर वीतरागता प्रगट करे; क्योंकि वीतराग हुए बिना पूर्णता, पवित्रता व सर्वज्ञता की प्राप्ति संभव नहीं है। एतदर्थ अकर्तावाद को समझना अति आवश्यक वस्तुतः कर्ता-कर्म सम्बन्ध दो द्रव्यों में होता ही नहीं, एक ही द्रव्य में होता है। इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित पद्य द्रष्टव्य है - "यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामों भवेतु तत्कर्म । या परिणमति क्रिया सा, त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ।।५१ ।। जो परिणमित होता है, वह कर्ता है, जो परिणाम होता है उसे कर्म कहते हैं और जो परिणति है वह क्रिया कहलाती है, वास्तव में तीनों भिन्न नहीं है। इस कलश से स्पष्ट है कि जीव और पुद्गल में कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। वस्तुतः कर्तृ-कर्म सम्बन्ध वहीं होता है, जहाँ व्याप्य-व्यापक भाव या उपादान-उपादेय भाव होता है। जो वस्तु कार्यरूप परिणत होती है वह व्यापक है, उपादान है तथा जो कार्य होता है वह व्याप्य है, उपादेय है। यदि आत्मा परद्रव्यों को करे तो नियम से वह उनके साथ तन्मय हो जाये, पर तन्मय नहीं होता, इसलिए वह उनका कर्ता नहीं है, वीतरागता राग-द्वेष की जड़ : पर कर्तृत्व की मान्यता प्राप्त करने के लिए अकेला अकर्ता होना ही जरूरी नहीं है, बल्कि अपने को पर का अकर्ता जानना, मानना और तद्रूप आचरण करना भी जरूरी है। एक-दूसरे के अकर्ता तो सब हैं ही, पर भूल से अपने को पर का कर्ता मान रखा है, इस कारण अज्ञानी की अनन्त आकुलता और क्रोधादि कषायें कम नहीं होतीं। अन्यथा इस अकर्तृत्व सिद्धान्त की श्रद्धा वाले व्यक्ति के विकल्पों का तो स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का होता है कि उसे समय-समय पर प्रतिकूल परिस्थितिजन्य अपनी आकुलता कम करने के लिए वस्तु के स्वतंत्र परिणमन पर एवं उस परिणमन में अपनी अकिंचित्करता के स्वरूप के आधार पर ऐसे विचार आते हैं कि जिनसे उसकी आकलता सहज ही कम हो जाती है। उदाहरणार्थ, वह सोचता है कि - (अ) यदि मैं अपने शरीर को अपनी इच्छानुसार परिणमा सकता तो जब भी अपशकुन की प्रतीक मेरी बाईं आँख फड़कती है, उसे तुरन्त बन्द करके शुभ शकुन की प्रतीक दायी आँख क्यों नहीं फड़का लेता? (ब) यदि मैं अपने प्रयत्नों से शरीर को स्वस्थ रख सकता हूँ तो प्रयत्नों के बावजूद भी यह अस्वस्थ क्यों हो जाता है? जब किसी को केंसर, कोढ़ एवं दमा-श्वांस जैसे प्राणघातक भयंकर दुःखद रोग हो जाते हैं तो वह उन्हें अपने प्रयत्नों से ठीक क्यों नहीं कर लेता? (स) यदि मैं किसी का भला कर सकता होता तो सबसे पहले अपने कुटुम्ब का भला क्यों न कर लेता? फिर मेरे ही परिजन-पुरजन दुःखी क्यों रहते? मैंने अपनी शक्ति अनुसार उनका भला चाहने एवं भला करने में कसर भी कहाँ छोड़ी, पर मेरी इच्छानुसार मैं किसी का कुछ भी तो नहीं कर सका। (द) इसीप्रकार, यदि कोई किसी का बुरा या अनिष्ट कर सकता होता तो (51)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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