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________________ नींव का पत्थर करनेवाला आत्मा पुरुषार्थ करे तो वर्तमान में उनका अभाव कर सम्यक्त्वादि धर्म दशा प्रगट कर सकता है, क्योंकि वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्याय में अभाव है, अतः प्रागभाव समझने से मैं पापी हूँ, मैंने बहुत पाप किये हैं, मैं कैसे तिर सकता हूँ ? आदि हीन भावना निकल जाती है। प्रध्वंसाभाव के समझने से यह ज्ञान हो जाता है कि वर्तमान में कैसी भी दीन-हीन दशा हो, भविष्य में उत्तम से उत्तम दशा प्रगट हो सकती है; क्योंकि वर्तमान पर्याय का आगामी पर्यायों में अभाव है, अत: वर्तमान पामरता देखकर भविष्य के प्रति निराश न होकर स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ प्रगट करने का उत्साह जागृत होता है।" जिज्ञासु ने निवेदन किया - “कृपया अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव की स्वीकृति से क्या-क्या लाभ है ?" अनेकान्त ने बताया कि - “अन्योन्याभाव की श्रद्धा से अभक्ष्यभक्षण के विकल्प खत्म हो जाते हैं। अल्प फल बहुविघात जैसी पाप क्रियायें रुक जाती हैं; क्योंकि एक पुद्गल की वर्तमान पर्याय का दूसरे पुद्गल की वर्तमान पर्याय में अभाव है, अत: शरीर में अभक्ष्य पदार्थ से जब कुछ लाभ ही नहीं तो व्यर्थ में यह पाप क्यों करना? अत्यन्ताभाव यह बताता है कि दो द्रव्यों के बीच में जब वज्र की दीवार है, एक द्रव्य का दूसरे से कुछ भी संबंध नहीं है, ऐसी परिस्थिति में परद्रव्य हमारा कुछ भी भला-बुरा नहीं कर सकते । ऐसी श्रद्धा से पर के प्रति राग-द्वेष स्वतः कम होने लगते हैं और हम वीतराग धर्म की ओर अग्रसर होते हैं। इसतरह चारों अभावों के समझने से स्वाधीनता का भाव जागृत होता है, पर से आशा की चाह समाप्त होती है, भय का भाव निकल जाता है, भूतकाल और वर्तमान की कमजोरी और विकार देखकर उत्पन्न होनेवाली दीनता समाप्त हो जाती है और स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ जागृत होता है। आशा है, अब तुम्हारी समझ में इनके जानने से क्या कुछ अनछुए पहलू लाभ है, यह भी आ गया होगा?" __ अन्त में कुछ श्रोताओं से वक्ता ने पुनः कुछ प्रश्न किए, जिनके संतोषजनक उत्तर प्राप्त हुए । श्रोता ने कहा - “जो आपने समझाया, वह सब बहुत अच्छी तरह समझ में आ गया।" "आ गया तो बताओ ! 'शरीर मोटा-ताजा हो तो आवाज भी बुलन्द होती है' - ऐसा माननेवाला क्या गलती करता है ?" उत्तर - "वह अन्योन्याभाव का स्वरूप नहीं जानता, क्योंकि शरीर का मोटा-ताजा होना आहार वर्गणारूप पुद्गल का कार्य है और आवाज बुलन्द होना भाषा वर्गणा का कार्य है। इन दोनों में अन्योन्याभाव है। दूसरे श्रोता से प्रश्न - "ज्ञानावरणी कर्म के क्षय के कारण आत्मा में केवलज्ञान होता हैं' ऐसा माननेवाले ने क्या भूल की?" श्रोता का उत्तर - “उसने अत्यन्ताभाव को नहीं जाना, क्योंकि ज्ञानावरणी कर्म पुद्गल द्रव्य और आत्मा जीवद्रव्य है, दोनों में अत्यन्ताभाव है, फिर एक द्रव्य के कारण दूसरे द्रव्य में कार्य कैसे हो सकता है ?" तीसरे श्रोता से प्रश्न - "शास्त्र में ऐसा क्यों लिखा है कि ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ?" श्रोता का उत्तर - “शास्त्र में ऐसा निमित्त का ज्ञान कराने के लिए असद्भूत व्यवहारनय से कहा जाता है, किन्तु वस्तुतः निश्चयनय से विचार किया जाय तो एकद्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य का कर्ता हो ही नहीं सकता।" अनेकान्त ने कहा – “आपने मेरी बात को ध्यान से सुना, एतदर्थ धन्यवाद । देखो, वस्तुस्वरूप तो अनेकान्तात्मक है। अकेला भाव ही वस्तु का स्वरूप नहीं है, अभाव भी वस्तु का धर्म है। उसे माने बिना वस्तु की व्यवस्था नहीं बनेगी। चारों अभावों का स्वरूप अच्छी तरह समझ मोह-राग-द्वेषादि विकारों का स्वतः ही अभाव हो जाता है।" सभी श्रोता अभाव का स्वरूप समझकर राग-द्वेष का अभाव करने का प्रयत्न करें - इसी भावना से विराम लेता हूँ। (44)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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